स्वरूपानंद सरस्वती: जलाकर नहीं ऐसे होगा दाह संस्कार, दी जाएगी भू-समाधि, जानें इसके पीछे का कारण
नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश) : स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती अब हमारे बीच नहीं रहे. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ) और शारदा पीठ (द्वारका) के शंकराचार्य थे. बता दें कि शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती हिंदूओं के सबसे बड़े धर्म गुरु थे. 98 साल की उम्र में रविवार, 11 सितंबर को उन्होंने अंतिम सांस ली.
स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी का जन्म मध्यप्रदेश के सिवनी जिले में 2 सितंबर 1924 को हुआ था. छोटी उम्र में ही वे अध्यात्म से जुड़ गए थे. उनके निधन से देभर में शोक की लहर दौड़ पड़ी है. देश की दिग्गज हस्तियों ने स्वामी जी को श्रद्धंजलि अर्पित की है. शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का अंतिम संस्कार सोमवार शाम को किया जाएगा.
स्वरूपानंद सरस्वती के अंतिम संस्कार की तैयार की जा रही है. उनका दाह संस्कार मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर में उनके आश्रम में किया जाएगा. हालांकि आपको बता दें कि हिंदू धर्म में जिस तरह से शव को जलाकर अंतिम संस्कार जाता है उस तरह से स्वामी जी का अंतिम संस्कार नहीं होगा. बल्कि उन्हें भू-समाधि दी जाएगी. उनके शव को जमीन में दफनाया जाएगा.
गौरतलब है कि संत परंपरा में किसी भी सन्यासी का अंतिम संस्कार शव को जलाकर नहीं किया जाता है बल्कि उन्हें समाधि दी जाती है. सोमवार को झोतेश्वर के परमहंसी गंगा आश्रम में स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी को भी भू-समाधि दी जाएगी. हालांकि इसका महत्व है.
दरअसल कहा जाता है कि साधु-संत मृत्यु के बाद भी अपने शरीर से परोपकार करते रहते हैं. इसे लेकर उज्जैन में अखाड़ा परिषद के पूर्व महामंत्री और स्वास्तिक धाम के पीठाधीश्वर डॉ. अवधेशपुरी महाराज ने बताया कि, ”आम लोगों को मृत्यु के बाद जलाया जाता है, लेकिन साधु-संतों को समाधि दी जाती है, क्योंकि उनका पूरा जीवन परोपकार के लिए है. यहां तक कि मृत्यु के बाद भी संत अपने शरीर से परोपकार करते हैं. जलाकर अंतिम क्रिया करने पर शरीर से किसी को लाभ नहीं होता, बल्कि पर्यावरण को हानि होती है, इसलिए साधु-संतों का अंतिम संस्कार जमीन या जल में समाधि देकर किया जाता है”.
उन्होंने आगे बातचीत में कहा कि, ”इन दोनों तरीकों में छोटे-छोटे करोड़ों जीवों को शरीर से आहार मिल जाता है. साधु-संतों के लिए अग्नि का सीधे स्पर्श करने की मनाही रहती है. इसलिए मृत्यु के बाद पृथ्वी तत्व में या जल तत्व में विलीन करने की परंपरा है. समाधि की वजह से शिष्यों को अपने गुरु का सान्निध्य हमेशा मिलता रहता है”.
ये होती है जाती है भू-समाधि की प्रक्रिया…
भू-समाधि के लिए करीब 6 से 7 फ़ीट लंबा, चौड़ा गड्ढा खोदा जाता है. पूरे गड्ढे में गाय के लोबर का लेप किया जाता है. इस गड्ढे के अलावा एक छोटा सा गड्ढा और सन्यासी के शरीर को बैठी हुई मुद्रा में रखने के लिए खोदा जाता है. गड्ढे में ढेर सारा नमक भी डाला जाता है जिससे शरीर ठीक से और अच्छे से गल सके.
किसी भी सन्यासी को भू-समाधि देने के लिए उनका श्रंगार किया जाता है. वे जिस तरह के पड़े पहनते थे वैसे कपड़े पहनाए जाते है. जैसा तिलक लगाते थे वैसा तिलक लगाया जाता है. स्नान के बाद विशेष शृंगार होता है. अंतिम क्रिया के दौरान सन्यासी के शरीर पर घी भी मला जाता है. वहीं सन्यासी की चीजें जैसे कि कमंडल, रुद्राक्ष की माला दंड आदि भी गड्ढे में ही रखे जाते है.