सुदीप दत्ता सक्सेस स्टोरी: 15 रुपए पर मज़दूरी करने वाला व्यक्ति बना 1600 करोड़ की कंपनी का मालिक
15 रुपए मजदूरी से शुरू हुआ सफ़र पहुँचा 1600 करोड़ रुपए तक। जानिए पूरी कहानी...
सुदीप दत्ता (Sudeep Dutta Success story) : सामान्य जीवन मे अधिकतर लोग भगवान या फ़िर अपनी जिंदगी को कोसते रहते हैं। वहीं कुछ ऐसे भी होते है। जो अपनी विपरीत परिस्थितियों को लेकर अपने परिवार को भी कोसते है कि अगर घर वाले मेरे साथ ये कर देते तो मैं वो कर लेता या फलाँ-फलाँ, लेकिन हम आपको यहां एक ऐसी कहानी बताने जा रहें। जो कहीं न कहीं हमें यह बताती है कि जीवन सिर्फ़ कमियां गिनाने या फ़िर परिस्थितियों को कोसने से नहीं बदलता। जीवन में तरक़्क़ी करना है। तो उसके लिए कर्म को प्रधानता देना होगा। जब हम कर्म को प्रधानता देते है तो ज़िंदगी हमेशा आपकी बेहतरी के लिए एक ना एक रास्ता जरूर खोलती है।
बता दें कि हम जिस सक्सेस स्टोरी की बात कर रहें। वह कहानी एक ऐसे मजदूर की है। जो कभी 15 रुपए की दिहाड़ी पर काम करते थे, लेकिन इस मजदूर ने कर्म को प्रधानता दी और देखते ही देखते यह मजदूर 1600 करोड़ की कंपनी का मालिक बन बैठा। अब आप सोच में पड़ गए होंगे कि आख़िर हम बात किसकी कर रहें और किस कंपनी की। तो बता दें कि यह कहानी है Ess Dee Aluminium Pvt Ltd के संस्थापक सुदीप दत्ता की। जिन्होंने अपने जीवन की शुरुआत एक मजदूर के रूप में की और देखते ही देखते अपनी मेहनत और समझ बूझ से एक बड़ी कंपनी के मालिक बन बैठे।
मालूम हो कि पश्चिमी बंगाल के दुर्गापुर के एक सामान्य परिवार में जन्में सुदीप दत्ता के पिता एक भारतीय सैनिक थे। उन्होंने 1971 में भारत-पाक जंग में हिस्सा लिया था। इसी जंग में इनके पिता को गोली लगी और वह हमेशा के लिए पैरालाइज्ड हो गए। पिता के अपंग होने के बाद सुदीप के परिवार की जिम्मेदारी उनके बड़े भाई के कंधों पर आ गई। भाग्य ने कुछ ही समय के भीतर सुदीप के घर की स्थिति को जड़ से हिला कर रख दिया। बड़े भाई ने जैसे तैसे घर की जिम्मेदारी संभाल ली। वह खुद कमाते और घर चलाने के साथ साथ सुदीप को भी पढ़ाते।
बता दें कि सुदीप के परिवार का वक्त तो बुरा था लेकिन जैसे तैसे कट रहा था लेकिन स्थिति अभी और खराब होनी थी। सुदीप के बड़े भाई अचानक से बीमार पड़ गए। बीमारी भी ऐसी कि घटने की बजाए रोज रोज बढ़ती रही। ऐसे में घर की स्थिति इतनी ख़राब हो गई कि इनके भाई को उचित इलाज तक ना मिल सका। आखिरकार इस बीमारी ने इनके बड़े भाई को लील ही लिया। नियति ने यहीं दम नहीं लिया, अभी सुदीप के परिवार को किस्मत की एक और मार झेलनी थी। सुदीप के पिता अपने बड़े बेटे की मौत का सदमा झेल नहीं पाए और उनके जाने के कुछ दिन बाद ही उन्होंने अपने प्राण भी त्याग दिए।
बड़े भाई और पिता की जब मौत हुई उस समय सुदीप मात्र 16-17 साल के थे। पढ़ाई के नाम पर इनके पास बारहवीं पास का सर्टिफिकेट मात्र था। समस्या ये थी कि परिवार में अभी 4 भाई बहन तथा मां थी जिसकी जिम्मेदारी अब सुदीप को उठानी थी। वक्त की मार ने सुदीप को उम्र से पहले ही बड़ा बना दिया था। जिम्मेदारी तो कंधों पर आ गई थी लेकिन उन्हें ये बिलकुल नहीं पता था कि वह इसे निभाएंगे कैसे। इस बीच उनके मन में वेटर का काम करने या रिक्शा चलाने जैसे ख़्याल भी आए लेकिन उन्हें क्या पता था कि घर पर आई इस आपदा के बाद किस्मत उनके लिए करोड़पति बनने का रास्ता तैयार कर रही है। यह रास्ता उन्हें तब दिखा जब उनके दोस्तों ने उन्हें अमिताभ बच्चन का उदाहरण देते हुए मुंबई जाने की सलाह दी।
इसके बाद सबकी तरह सुदीप भी आंखों में सुनहरे सपने लिए मुंबई पहुंचे थे लेकिन इस मायानगरी के छलावे ने उनके सपने सच करने के बदले उन्हें मज़दूर बना दिया। हालांकि मुंबई के बारे में यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि ये शहर हर इंसान को पहले परखता है और जो इसके इम्तेहान में पास हो जाता। उसे ये शहर इतना देता है कि उससे संभाला नहीं जाता। शायद ये मुंबई सुदीप को भी परख रही थी। 1988 में सुदीप ने अपने कमाने की शुरुआत एक कारखाना मजदूर के रूप में की। 12 लोगों की टीम के साथ वह एक करखाने में सामानों की पैकिंग, लोडिंग और डिलीवरी का काम करते थे। इसके बदले इन्हें दिन के मात्र 15 रुपये के हिसाब से मजदूरी मिलती थी। करोड़ों की संपत्ति बनाने वाले सुदीप को अपने शुरुआती दिनों में एक ऐसे छोटे से कमरे में रहना पड़ता था जहां पहले से ही 20 लोगों का बोरिया बिस्तरा लगा हुआ था। सुदीप का रूम मीरा रोड पर था और इन्हें काम के लिए जोगेश्वरी जाना पड़ता था। इस बीच का फासला 20 किमी था। ट्रांसपोर्ट का खर्चा बच सके इसलिए सुदीप हर रोज रूम से पैदल ही काम पर जाते और आते। इस तरह वह रोज 40 किमी का सफर पैदल तय करते थे।
इसी बीच 1991 में कारखाने के मालिक को भारी नुकसान उठाना पड़ा। नौबत ये आ गई कि मालिक ने कारखाने को बंद करने का फैसला कर लिया। जिसके बाद सुदीप ने इस डूबती हुई कंपनी में अपना फायदा खोज लिया। हालांकि सुदीप आर्थिक रूप से इतने मजबूत नहीं थे कि इस कंपनी को खरीद सकते लेकिन इसके बावजूद वह इस मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे। इसीलिए सुदीप ने अपनी सारी बचत और अपने दोस्तों से उधार लेकर कुल 16000 रुपये इकट्ठा किए। 16000 रुपयों से किसी कंपनी को खरीदना आसमान से तारे तोड़ना जैसा मुश्किल होता है, लेकिन कहते हैं न अगर जुनून हो तो कुछ भी संभव है। हुआ वही मालिक कंपनी बेचने को तैयार हो गया लेकिन इसके साथ ही उसने एक शर्त रखी और वो शर्त ये थी कि सुदीप अगले दो साल तक उस फैक्ट्री से होने वाला सारा मुनाफा मालिक को देंगे। सुदीप को किसी भी हाल में ये कंपनी चाहिए थी। साथ ही उन्हें खुद पर इस बात का यकीन कि वह कंपनी से अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। इसी सोच के साथ सुदीप ने शर्त मान ली और उस कंपनी के मालिक बन गए, जिसमें कभी वह मजदूरी किया करते थे।
धीरे- धीरे इनकी मेहनत से कंपनी आगे बढ़ने लगी और इन्हें पैकेजिंग उद्योग का “नारायण मूर्ति” कह कर बुलाया जाने लगा। उस समय Ess Dee Aluminium कंपनी की मार्केट वैल्यू 1600 करोड़ से भी अधिक थी। बताया जाता है कि सुदीप दत्ता ने गरीब लोगों की मदद के लिए सुदीप दत्ता फाउंडेशन की स्थापना की थी। इसके साथ ही इन्होंने अपने जैसे उन युवाओं की मदद के लिए प्रोजेक्ट हैलपिंग हैंड की शुरुआत भी की थी, जो अपनी आंखों में बड़े सपने लिए मुंबई शहर में आते हैं।