अध्यात्म

ज्ञान: जीवन में किसी से भी हद से ज्यादा प्यार ना करें और ना ही दुश्मनी

वाल्मीकि जी ने रामायण के जरिए हमें जीवन से जुड़ी कुछ सीख दी हैं जिनको अपनाने से जीवन की हर परेशानी से बचा जा सकता है। वाल्मीकि ने रामायण के किष्किंधा कांड और युद्धकांड में श्लोकों की मदद से ये समझाने की कोशिश की है कि मनुष्य को किन लोगों से दोस्ती करनी चाहिए और किसी से भी हद से ज्यादा प्रेम या दुश्मनी नहीं करनी चाहिए।

वाल्मीकि  के श्लोक और इन श्लोकों का अर्थ –

पहला श्लोक-

उत्साहो बलवान् आर्य नास्ति उत्साहात् परम् बलम् ।

सः उत्साहस्य हि लोकेषु न किंचित् अपि दुर्लभम् ॥

इस श्लोक का अर्थ

इस श्लोक के जरिए वाल्मीकि ने जीवन में उत्साह का महत्व बताया है। वाल्मीकि  के अनुसार जीवन में उत्साह से बढ़कर कोई भी चीज नहीं होती है और उत्साहित इंसान अपने जीवन में सब कुछ पा सकता है।

दूसरा श्लोक –

निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।

सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनम् चाधिगच्छति

इस श्लोक का अर्थ –

जीवन में अधिक से ज्यादा उत्साह करने से बचें। क्योंकि अधिक उत्साह करने से जीवन के सभी कार्य बिगड़ जाते हैं।  इतना ही नहीं कई बार हम कई तरह की परेशानियों में भी फंस जाते हैं। वाल्मीकि के अनुसार जीवन में अधिक उत्साह करना मुसीबतों का कारण बन सकता है।

तीसरा श्लोक –

गुणवान् वा परजनः स्वजनो निर्गुणो ऽपि वा ।

निर्गुणः स्वजनः श्रेयान् यः परः पर एव सः ।।

इस श्लोक का अर्थ

अपना तो अपना ही होता है। चाहें वो कितना भी गुणहीन क्यों ना हों। अपने रिश्तेदारों या परिवार के सदस्यों से पराए लोग चाहें कितने भी गुणवान हों। लेकिन हम हमेशा अपनों का ही साथ देते हैं उन्हें ही सबसे उत्तम मानते हैं।

चौथा श्लोक –

न च अतिप्रणयः कार्यः कर्तव्यो अप्रणयः च ते ।

उभयम् हि महादोषम् तस्मात् अंतर दृक् भव ॥

इस श्लोक का अर्थ

जीवन में किसी से दुश्मनी ना करें और ना ही किसी से लड़ाई या हद से ज्यादा प्यार करें। जब हम किसी से लड़ाई करते हैं तब हमें भी कष्ट पहुंचता है और जब हम किसी से हादस से ज्यादा प्यार करते हैं तब भी हमें ही दुख होता है।

पांचवा श्लोक –

आढ्यो वा अपि दरिद्रो वा दुःखितः सुखितोऽपि वा ।

निर्दोषः च सदोषः च वयस्यः परमा गतिः ॥

इस श्लोक का अर्थ

जीवन में मित्र होना बेहद ही जरुरी होता है। मित्र चाहे कैसा भी हो वो ही जीवन का सहारा होता है और बुरे समय में मदद करता है।

छठा श्लोक –

वसेत् सह सपत्नेन क्रुद्धेन आशी विषेण च ।

न तु मित्र प्रवादेन सम्वस्च्चत्रुणा सह ॥

इस श्लोक का अर्थ

इंसान शुत्र और महाविषधर सर्प के साथ भले ही रह लें। लेकिन वो कभी भी ऐसे मनुष्य के साथ ना रहें, जो कि खुद को मित्र कहता है। लेकिन अंदर ही अंदर दोस्त के नाम पर दुश्मनी निकालता है।

सातवें श्लोक –

स सुहृद् यो विपन्नार्थं दीनमभ्यवपद्यते ।

स बन्धुर्यो ऽपनीतेषु साहाय्यायोपकल्पते ।।

इस श्लोक का अर्थ

इस श्लोक के जरिए वाल्मीकि कहते हैं कि दोस्त वो ही होता है जो बुरे वक्त में अपने मित्र की सहायता करें। जबकि सच्चा बंधु वो होता है जो बुरे रास्ते पर चलने वाले दोस्त की भी मदद करें।

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