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पुलवामा हमला: हरिओम पंवार की कविता की ये पंक्तियां भारतीयों के मन में पाकिस्तान के प्रति गुस्से को दर्शाती हैं

न्यूज़ट्रेंज वेब डेस्क: 14 फरवरी को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले में देश के 40 जवान शहीद हो गए थे। जिसको लेकर के पाकिस्तान के लिए हर देशवासी के मन में गुस्सा है। अब बस लोगों को पाकिस्तान को उसकी करतूत का सबक सिखाना था। भारतीय सरकार ने भी पाकिस्तान को उसकी इस हरकत का सबक सिखाने के लिए कई कड़े कदम उठाएं हैं जिसके चलके पाकिस्तान की हालत अब खराब हो रही है। देश का हर व्यक्ति सोशल मीडिया से लेकर हर जगह पर पाकिस्तान को लेकर अपना गुस्सा दिखा रहा है। हर कोई पाकिस्तान से बदला लेने की आग में भभक रही है। ऐसे में आज हम आपको एक ऐसे कवि की कविता के बारे में बताएंगे जिसकी पंक्तियों में हर देशवासी के मन की भावनाएं झुपी हुई हैं। ये कविता हरिओम पंवार ने लिखी है। पढ़ें आप भी ये कविता-

“ये आतंकों के गालों पर दिल्ली के चांटे होते,
गर हमने दो के बदले में बीस शीश काटे होते 

बार- बार दुनिया के आगे हम ना शर्मिंदा होते                                                                         

और हमारे सारे सैनिक सीमा पर ज़िंदा होते

ये कैसा परिवर्तन है खुद्दारी के आचरणों में
सेना का सम्मान पड़ा है चरमपंथ के चरणों में
किसका ख़ून नहीं खौलेगा सुन-पढ़कर अख़बारों में
सिंहों की गर्दन कटवा दी चूहों के दरबारों में
बार-बार की गद्दारी को भारत क्यों सह जाता है
ज़्यादा संयम भी दुनिया में कायरता कहलाता है
हमने 68 साल खो दिए श्वेत कपोत उड़ाने में
ख़ूनी पंजों के गिद्धों को गायत्री समझाने में

भैंस के आगे बीन बजाना बहुत हो चुका बंद करो
खुद को बिच्छू से कटवाना बहुत हो चुका बंद करो
नागफनी पर बेला चंपा कभी नहीं खिलने वाले
पत्थर की आंखों में आंसू कभी नहीं मिलने वाले
बंदूकों की गोली का उत्तर सद्भाव नहीं होता
हत्यारों के लिए अहिंसा का प्रस्ताव नहीं होता
कोई विषधर कभी शांति के बीज नहीं बो सकता है
और भेड़िया शाकाहारी कभी नहीं हो सकता है

 

पीपल छाया मांग रहा था यूं कीकर के पेड़ों से
जैसे कोई शेर सुरक्षा मांग रहा हो भेड़ों से
जैसे कोई मोती खो दे झीलों की गहराई में
हम कश्तूरी खोज रहे हैं उल्लू की परछाईं में
जब सिंहों की राजसभा में गीदड़ गाने लगते हैं
तो हाथी के मुंह के गन्ने चूहे खाने लगते हैं

रावलपिंडी वालों को सपने में काल दिखाओ तो
भारतमाता की आंखों के डोरे लाल दिखाओ तो
दिल्ली वालों ठोंकर मारो दुनिया के हथकंडों पर
इजराइल से जीना सीखो अपने ही भुजदंडों पर

भारत माता का बंटवारा है जिनकी अभिलाषा में
वे समझेंगे अर्जुन की गांडीव धरम की भाषा में
फूल अमन के नहीं खिलते कायर की परिपाटी में
नेहरू जी के श्वेत कबूतर मरे पड़े हैं घाटी में
दिल्ली वालों अपने मन को बुद्ध करो या क्रुद्ध करो
काश्मीर को दान करो या गद्दारों से युद्ध करो
जेल भरे क्यों बैठे हैं हम आदमखोर दरिंदों से
आजादी का दिल घायल है जिनके गोरखधंधों से
घाटी में आतंकवाद के कारक बने हैं जो
बच्चों के मुस्कानों के संहारक बने हुए हैं जो
उन ज़हरीले नागों को भी दूध पिलाती है दिल्ली
मेहमानों जैसे बिरियानी-चिकन खिलाती है दिल्ली

 

जिनके कारण पूरी घाटी जली दूल्हन सी लगती है
पूनम वाली रात चांदनी चंद्रग्रहण सी लगती है
जिनके कारण मां की बिंदी दाग दिखाई देती है
वैष्णों देवी मां के घर में आग दिखाई देती है
उनके पैरों बेड़ी जकड़े जाने में देरी क्यों है
उनके फन पे एड़ी रगड़े जाने में देरी क्यों है
काश्मीर में एक विदेशी देश दिखाई देता है
संविधान को ठुकराता परिवेश दिखाई देता है
वे घाटी में भारत के झंडों को रोज जलाते हैं
सेना पर हमला करते हैं ख़ूनी फाग मनाते हैं
हम दिल्ली की खामोशी पर शर्मिंदा रह जाते हैं
भारत मुर्दाबाद बोलकर वे ज़िंदा रह जाते हैं

हम दिल्ली की खामोशी पर शर्मिंदा रह जाते हैं
शायद तुम भी सत्तामद के अहंकार में ऐंठे हो
क्या सत्रह मंत्री मरने के इंतजार में बैठे हो
सेना पर पत्थरबाजों को कोई इतना बतला दो
ये गांधी के गाल नहीं हैं उनको इतना समझा दो
दिल्ली वालों सेना को भी कुछ निर्णय ले लेने दो
एक बार पत्थर का उत्तर गोली से दे लेने दो
जब चौराहों पर हत्यारे महिमामंडित होते हों
भारत मां की मर्यादा के मंज़र खंडित होते हों
जब कस भारत के नारे हों गुलमर्दा की गलियों में
और शिमला समझौता जलता हो बंदूकों की नलियों में
तो केवल आवश्यकता है हिम्मत की खुद्दारी की
दिल्ली केवल दो दिन की मोहलत दे दे तैयारी की
सेना को आदेश थमा दो घाटी गैर नहीं होगी
जहां तिरंगा नहीं मिलेगा उनकी खैर नहीं होगी

बर्मा, बंगलादेश तलक सीमा पर ऐंठे रहते थे
और हमारे नेता चूड़ी पहने बैठे रहते थे
दिल्ली डरी-डरी रहती थी पाक-चीन के बाॅर्डर पर
सेना बांधे हाथ खड़ी रहती थी किसके ऑर्डर पर
दुनिया को एहसास कराओ हम निर्णय ले सकते हैं
हम भी ईंटों का उत्तर अब पत्थर से दे सकते हैं।”

हरिओम पंवार की इस कविता की पंक्तियां सुनकर मन में बस एक ही ख्याल आता है कि अब भारत को ऐसा ही कदम उठाना चाहिए, क्योंकि बहुत सालों से इस बारे में बैठकर सुलह होने की कोशिश हो रही हैं लेकिन उसका कोई फायदा होता नहीं दिख रहा है। हर बार देश के जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ती है।

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