मंदिरों में क्यों लगाते हैं परिक्रमा, जानिए इसका पौराणिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक महत्व
हर धर्म में अपने ईष्ट की आराधना के लिए अलग –अलग तरीके और नियम हैं पर एक विधि हर धर्म में अपनाई जाती है वो है भगवान की मूर्ति या फिर देव स्थल की परिक्रमा करना। हिन्दु धर्म के अलावा मुस्लिम,सिख और बौद्ध धर्म में भी अपने ईष्ट की परिक्रमा की जाती है.. सिख धर्म में जहां लोग गुरुद्वारों में माथा टेकने के बाद चक्कर लगाते हैं वही बौद्ध धर्म के अनुयायी भी भगवान बुद्ध के मंदिरों में परिक्रमा करते हैं और यही प्रक्रिया मस्जिदों और मजारों में देखने को मिलती है पर क्या आपने कभी सोचा है ऐसा किस उद्देश्य से किया जाता है आखिर में इसका अभिप्राय क्या होता है। अगर नही तो चलिए आज आपको बताते हैं कि आखिर मंदिर या किसी पूज्यनीय स्थ्ल की परिक्रमा क्यों की जाती है..
चलिए शुरू करते हैं सनातन धर्म में परिक्रमा के महत्व से .. तो आपको बता दें कि हिन्दु धर्म के महत्वपूर्ण वैदिक ग्रंथ ऋग्वेद में प्रदक्षिणा का उल्लेख किया गया है। ‘प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं यानी अपने दक्षिण की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। इसमें व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होना चाहिए.. इस प्रदक्षिणा को ही आज परिक्रमा के नाम से जाना जाता है। वास्तव में प्रदक्षिणा का विधान वैदिक काल में इस उद्देश्य से किया गया कि जिस तरह सूर्यदेव प्रात: पूर्व में निकलकर दक्षिण के मार्ग से चलकर पश्चिम में अस्त होते हैं, उसी तरह व्यक्ति या जातक अपने धार्मिक कृत्यों को बाधा विध्नविहीन भाव से सम्पादित करे। वहीं शतपथ ब्राह्मण में प्रदक्षिणा मंत्र का उल्लेख हैं जिसका अभिप्राय है, सूर्य के समान हमारा पूजन कार्य पूर्ण हो। इस तरह दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का विधान हिन्दू धर्म की देन है.. इसलिए काबा में भी परिक्रमा की जाती है तो बोधगया में भी ।
वैसे हिन्दु धर्म में परिक्रमा के विधान के पीछे एक पौराणिक कथा भी है या कह सकते है इसका अपना पौराणिक इतिहास है.. तो आइए जानते हैं उस पौराणिक इतिहास के बारे में..
पौराणिक मान्यता के अनुसार एक बार माता पार्वती ने अपने पुत्रों कार्तिकेय तथा गणेश को सांसारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए सृष्टि का एक चक्कर लगाकर वापस लौटने का आदेश दिया और कहा जो भी इस परिक्रमा को पूर्ण कर माता के पास सबसे पहले पहुंचता हैं वही सर्व ज्ञानी कहलाएगा। ये सुनते ही कार्तिकेय अपनी सुंदर सवारी मोर पर सवार होकर पृथ्वी का चक्कर लगाने के लिए निकल पड़े। उन्हें यह लग रहा था कि ये प्रतियोगिता वही जीतेंगे क्योंकि भगवान गणेश की सवारी तो मूसक होते हैं पर वही गणेश जी ने भी चतुरता दिखाई और पूरे सृष्टि के बजाए अपने माता-पिता यानी भगवान शिव और मां पार्वती की परिक्रमा शुरू कर दी और कार्तिकेय से पहले ही परिक्रमा पूरी कर मां पार्वती के समक्ष खड़े हो गए । ऐसे में जब उनसे पूछा गया कि ऐसा क्यों किया तो उनका उत्तर था कि मेरे लिए माता-पिता ही पूरी सृष्टि हैं ..ये उत्तर सुनकर मां पार्वती और सभी देव जन अभिभूत हो गए और तभी से भगवान गणेश सबसे बुद्धिमान देव माने गए और साथ ही परिक्रमा करने की विधान शुरू हुआ।
इसके अलावा परिक्रमा करने का एक दार्शनिक महत्व भी है वो ये कि ब्रह्मांड में मौजूद हर ग्रह-नक्षत्र किसी न किसी तारे की परिक्रमा कर रहा है और यही परिक्रमा ही जीवन का सत्य है। इस जीवन चक्र को समझने के लिए ही परिक्रमा जैसे प्रतीक को विधान किया गया। चूकिं पूरी सृष्टि भगवान में ही समाई है और उनसे ही सारे प्राणी उत्पन्न हुए हैं.. ऐसे में हम उनकी परिक्रमा कर पूरे सृष्टि की परिक्रमा का लाभ पा सकते हैं । इसके साथ ही परिक्रमा का वैज्ञानिक महत्व भी है।
कोई भी मंदिर या आराध्य स्थल सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर होता है ऐसे में यहां दर्शन करने और पूजा करने के बाद परिक्रमा करने से सारी सकारात्मक ऊर्जा शरीर में प्रवेश करती है और मन-मस्तिष्क को लाभ मिलता है। साथ ही मान्यता है कि अगर नंगे पांव परिक्रमा की जाए तो अधिक सकारात्मक ऊर्जा और लाभ मिलता है।