जानिए क्यों विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय को खिलजी ने जला दिया?
प्राचीन काल में नालंदा विश्वविद्यालय अध्ययन करने के सबसे बड़े केन्द्रों में से एक था, 600 ईसा पूर्व अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इसे एक मठ विश्वविद्यालय माना जाता था, इस विश्वविद्यालय ने एक बार बुद्ध और महावीर दोनों को आश्रय दिया था।
नालंदा विश्वविद्यालय, प्राचीन काल में राजगीर का एक उपनगर हुआ करता था, जो राजगीर से पटना जाने वाली सड़क पर स्थित है।
सीखने के सबसे संगठित केंद्रों में से एक इस विश्वविद्यालय में विदेशी भूमि से भी काफी छात्र अध्ययन करने आते थें। एक विशाल क्षेत्र में फैला, नालंदा विश्वविद्यालय पटना से दक्षिण-पूर्व में 88.5 किलोमीटर की दूरी पर और राजगीर से उत्तर दिशा में 11.5 किलोमीटर की दूरी स्थित है। यह विश्वविद्यालय 10,000 छात्रों का अध्ययन केंद्र था, जिनके मार्गदर्शन के लिए 2000 शिक्षक हुआ करतें थें।
नालंदा की खुदाई के बाद ये तथ्य सामने आये कि यह अशोक के शासनकाल का सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध मठ और शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्रों में से एक हो गया था, ये भी पता चला कि विश्वविद्यालय के परिसर में अच्छी तरह मंदिरों का निर्माण किया गया था और इसके परिसर में बड़ी संख्या में मठ भी निर्मित थें।
गांव और उस समय के राजाओं के उदर स्वाभाव वो अनुदान पर चलते इस विश्विद्यालय में शिक्षा की कोई कीमत नहीं थी। यह अपने शिक्षकों और विद्यार्थियों दोनों को ही निःशुल्क सुविधाएं देता था।
उसी समय बख्तियार खिलजी नामक एक तुर्क मुस्लिम लूटेरा था। उसी ने नालंदा विश्वविद्यालय को सन 1199 में इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया। हुआ कुछ यूँ था कि….. उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था और एक बार वह बहुत बीमार पड़ा जिसमे उसके मुस्लिम हकीमों ने उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली मगर वह ठीक नहीं हो सका और मरणासन्न स्थिति में पहुँच गया।
तभी उसे किसी ने सलाह दी कि नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय विधियों से इलाज कराया जाय। हालाँकि उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई हिन्दू और भारतीय वैद्य उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और वह किसी काफ़िर से अपना इलाज करवाये। फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए उनको बुलाना पड़ा
उस बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के सामने एक अजीब सी शर्त रखी कि मैं एक मुस्लिम हूँ इसीलिए, मैं तुम काफिरों की दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा लेकिन, किसी भी तरह मुझे ठीक करों वर्ना मरने के लिए तैयार रहो। यह सुनकर…. बेचारे वैद्यराज को रातभर नींद नहीं आई। उन्होंने बहुत सा उपाय सोचा और सोचने के बाद वे वैद्यराज अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर चले गए और उस बख्तियार खिलजी से कहा कि इस कुरान की पृष्ठ संख्या … इतने से इतने तक पढ़ लीजिये ठीक हो जायेंगे।
बख्तियार खिलजी ने वैसे ही कुरान को पढ़ा और ठीक हो गया तथा उसकी जान बच गयी। इससे उस पागल को कोई ख़ुशी नहीं बल्कि बहुत झुंझलाहट हुई और उसे बहुत गुस्सा आया कि उसके मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है ?, और उसने बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले उनको पुरस्कार देना तो दूर उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग लगवा दिया और पुस्तकालयों को ही जला के राख कर दिया ताकि फिर कभी कोई ज्ञान ही ना प्राप्त कर सके
ऐसा कहा जाता है कि वहां इतनी पुस्तकें थीं, कि आग लगने के बाद भी तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके जलती रहीं।
सिर्फ इतना ही नहीं, उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षुओं को भी मार डाला। अब आप भी जान लें कि….. वो बख्तियार खिलजी कुरान पढ़ के ठीक कैसे हो गया था। हुआ दरअसल ये था कि जहाँ हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर रख के नहीं पढ़ते ना ही कभी, थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते हैं जबकि मुस्लिम ठीक उलटा करते हैं और वे कुरान के हर पेज को थूक लगा लगा के ही पलटते हैं बस वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था।
इस तरह वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज के दवा को चाट गया और ठीक हो गया परन्तु उसने इस एहसान का बदला अपने संस्कारों को प्रदर्शित करते हुए नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया। लेकिन फिर भी नालंदा ने अपना गौरव नहीं खोया और हाल ही में यूनेस्को द्वारा उसे वर्ल्ड हेरिटेज साइट सम्मान से भी नवाजा गया।