इस गलती से कांग्रेस पर दांव भारी पड़ा प्रशांत किशोर को, उड़ी नींद, कॅरियर पर संकट?
इधर, बात अगर बिहार की करें, तो वहां भी पीके को नीतीश कुमार जैसा सर्वमान्य चेहरा मिला तो महागठबंधन ने भी उनकी राह आसान की। महागठबंधन की वजह से मुकाबला महागठबंधन और भाजपा के बीच बनकर रह गया। वोटों को बंटवारा न होने की वजह से महागठबंधन को जीत हासिल हुई। कल्पना करिए कि जदयू, राजद और कांग्रेस अलग-अलग चुनाव लड़तीं, तो इसमें पीके क्या कर लेते? इसलिए हम यहां भी यह कह सकते हैं कि महागठबंधन बनने से पीके को भाजपा के खिलाफ रणनीति बनाने में आसानी हो गई।
पीके के लिए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव, लोकसभा और बिहार विधानसभा चुनाव से अलग हैं। पीके ने उस पार्टी को उबारने का काम अपने जिम्मे लिया है, जो उत्तर प्रदेश में एक कटी पतंग की तरह है, जिसकी डोर हवा में तैर रही है। उस डोर को थामकर पतंग को न केवल स्थिर करना, बल्कि उसे ऊंचाई देना बड़ी चुनौती है। न तो राजबब्बर और न ही शीला दीक्षित ऐसा चेहरा हैं, जिन्हें देखकर वोटर कांग्रेस की ओर खिंचा चला आएगा।
हां, प्रियंका गांधी ऐसा चेहरा जरूर हैं, जिससे उम्मीद की जा सकती है। कोई कितना भी कहे कि कांग्रेस एक परिवार की पार्टी बनकर रह गई है, लेकिन इस परिवार के सदस्यों में ऐसा जादू है, जिसका जोर मतदाताओं पर चल ही जाता है। राहुल गांधी अपवाद हो सकते हैं, लेकिन प्रियंका गांधी में लोग इंदिरा गांधी का अक्स देखते हैं। उनका चेहरा मोहरा और बॉडी लैंग्वेज इंदिरा गांधी से बहुत मिलते हैं।
यकीनन, आज भी महिलाओं, खासतौर से ग्रामीण महिलाओं से प्रियंका गांधी के बारे में पूछेंगे तो यही जवाब आएगा कि बिल्कुन अपनी दादी पर गई है। लेकिन प्रियंका के लिए अपनी दादी जैसा दिखना ही काफी नहीं है। अब यह पीके पर निर्भर करेगा कि वह कैसे प्रियंका गांधी की ‘दादी जैसी’ छवि को भुनाने की रणनीति बनाते हैं।
अब तक उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का जिक्र जब भी होता था, तो बात सपा, बसपा और भाजपा पर आकर खत्म हो जाती थी। लेकिन कांग्रेस जिस तरह से अपने पत्ते आहिस्ता आहिस्ता खोल रही है, उससे राजनीतिक विश्लेषकों के लिए कांग्रेस को नजरअदांज मुश्किल हो जाएगा। जो मुकाबला अभी तक त्रिकोणीय माना जा रहा है, वह चतुष्कोणीय भी हो सकता है।
खास बात यह है कि इस चतुष्कोणीय मुकाबले में सबसे अहम भूमिका मुसलिम वोटरों की हो जाएगी। अगर मुस्लिम वोटों का बिखराव नहीं हुआ और उन्होंने ‘सबका’ (सपा-बसपा-कांग्रेस) के जीतते हुए उम्मीदवार को यह देखे बगैर वोट कर दिया कि वह किस जाति या धर्म का है, तो इससे भाजपा को करारा झटका लग सकता है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को जहां बहुसंख्यकों के वोट एकमुश्त वोट मिलने से फायदा हुआ था, वहीं मुसलिम वोटों के बिखराव ने भी उसकी राह असान की थी। लेकिन अभी जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश के चुनाव नजदीक आते जाएंगे, राजनीतिक समीकरण बनते बिगड़ते रहेंगे। हो सकता है कि कोई गठबंधन भी वजूद में आ जाए।
बहरहाल, इधर इस साल की शुरुआत में ही अचानक हवा बननी शुरू हुई थी कि इस बार उत्तर प्रदेश में बसपा की वापसी हो रही है। लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता वह हवा मद्धम पड़ती जा रही है। स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी के बसपा छोड़ने के बाद हालात बदलते नजर आ रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर भाजपा लोकसभा की प्रचंड जीत के उन्माद में है। उसे लगता है कि बस नरेंद्र मोदी के नाम पर वोटर उसकी झोली भर देंगे। केंद्र में दो साल पूरे करने के बाद भाजपाई अगर जमीनी हकीकत का पता करने सड़कों पर निकलेंगे तो भाजपा को निराशा हो सकती है। लोकसभा की जीत का उन्माद अब उतार पर है। जब भाजपा चुनाव प्रचार में उतरेगी तो उसके लिए महंगाई पर जवाब देना मुश्किल होगा। इसमें दो राय नहीं कि महंगाई ने आम आदमी की जिंदगी पर गहरा प्रभाव डाला है। इसका असर निश्चित तौर पर भाजपा के उन वोटरों पर पड़ेगा, जो उसके परंपरागत वोटर नहीं रहे हैं।
अखिलेश सरकार रोज ही अपनी उपलब्धियों के अखबारों में चार से छह पेज तक के विज्ञापन दे रही हैं। टीवी पर भी विकास कार्यों का डंका पीटा जा रहा है। उन विज्ञापनों को आम लोग कितना पढ़ते-देखते होंगे, पता नहीं। लेकिन लोग यह जरूर पढ़ और देख रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में अपराध चरम पर है। कोई दिन नहीं जाता, जब किसी जिले में लूट, डकैती और कत्ल की वारदातें न होती हों। अखिलेश सरकार ने प्रदेश में विकास कार्य जरूर कराए हैं, लेकिन अपराध विकास पर पानी फेर रहे हैं।
2012 के चुनाव में कांग्रेस ने 29 सीटों पर जीत दर्ज की थी। और 31 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर रही थी। इन 29 सीटों में वह कितना इजाफा करती है, यह इस पर निर्भर करेगा कि राज बब्बर, शीला दीक्षित और प्रियंका गांधी की तिकड़ी के साथ मिलकर पीके क्या रणनीति अपनाते हैं। अगर पीके उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सम्मानजनक वापसी भी करा सके तो यह उनकी बड़ी कामयाबी होगी।