गरीब सुनीता को मुश्किल से मिली थी नौकरी, बच्चों ने उसके हाथ का खाने से मना कर दिया, जाने क्यों?
दुनिया आज 21वीं सदी में प्रवेश कर चुकी है। तकनीकी क्षेत्र में हम की आगे चले गए हैं। लेकिन आज भी कुछ लोग जाति को लेकर भेदभाव करते हैं। अब उत्तराखंड के चंपावत ज़िले के सूखीढांग गांव का मामला ही ले लीजिए। यहां एक स्कूल में सुनीता देवी बतौर भोजन माता काम करती थी। यहां भोजन माता मिड डे मील बनाकर उसे बच्चों को परोसने वाली महिला को कहा जाता है।
अब कुछ बच्चों ने सुनीता के हाथ से बना खाना खाने से इनकार कर दिया। इस मामले ने एक बड़े विवाद का रूप ले लिया और सुनीता चर्चा में आ गई।
इसलिए सुनीता के हाथ का नहीं खाते बच्चे
दरअसल सुनीता एक अनुसूचित जाति से आती हैं। इसलिए बच्चे उसके हाथ से बना खाना नहीं खाते हैं। हालांकि इस मामले में बच्चों के माता-पिता ने अधिक हंगामा किया है। उन्हीं की बदौलत सुनीता देवी को भोजन माता के पद से निकाल दिया गया। उनसे बोला गया कि नियुक्ति में कुछ गड़बड़ी हुई है, जांच हो रही है।
32 वर्षीय सुनीता इस मामले पर कहती हैं “भोजन माता की जॉब का विज्ञापन आया था। मैंने आवेदन किया तो नियम के अनुसार मेरा चयन हो गया। हालांकि जिस दिन चयन हुआ, उस दिन भी गांव के सवर्ण लोग हंगामा करते हुए बोले कि हमारे बच्चे इसके हाथ का खाना नहीं खाएंगे। स्कूल में 57 बच्चे हैं। पहले दिन तो तीन-चार को छोड़ सभी ने भोजन किया। फिर अभिभावकों के दबाव के चलते दूसरे दिन सिर्फ 23 बच्चों ने खाना खाया। ये सभी अनुसूचित जाति के बच्चे थे। फिर अगले दिन तो गाँव वाले हंगामा करने आ पहुंचे।
गरीब सुनीता तो नौकरी से थी उम्मीद
सुनीता आठवीं पास है। परिवार में बूढ़ी सास, पति और दो बच्चे हैं। पति मज़दूर है लेकिन गाँव में अधिक काम न मिलने पर खास कमाई नहीं होती है। थोड़ी सी जमीन है। इस पर कुछ उगाओ तो जानवर उसे चट कर जाते हैं। छोटा बेटा पारस छठी में तो बड़ा बेटा नीरज आठवीं में है। भोजन माता की नौकरी में सुनीता को 3 हजार रुपए महिना मिलता, इससे परिवार को कुछ उम्मीद थी कि आर्थिक सहारा हो जाएगा।
गाँव में बहुत होता है भेदभाव
अपनी नियुक्ति में किसी तरह की गड़बड़ी पर सुनीता का कहना है कि मैंने भोजन माता के लिए पहले कभी आवेदन नहीं दिया था। हालांकि विज्ञापन में लिखा था कि एससी-एसटी भी आवेदन भेज सकते हैं। अभी तक सवर्ण लोगों को ही भोजन माता का पद मिलता है।
गांव में होने वाले भेदभाव पर सुनीता कहती है कि ये सारा हंगामा गांववालों के कारण ही तो हो रहा है। हम आज के जमाने में भी जात-पात झेल रहे हैं। सवर्ण लोग हमे शादी-सहरोह में भी नहीं बुलाते हैं। यदि बुलाया तो दूर बैठाकर खाना खिलाते हैं। मंदिरों में भी हमे अलग रखा जाता है। बच्चों के साथ भी ऐसा ही होता है। हालांकि वे आपस में खेलते रहते हैं।
न्याय की उम्मीद नहीं
सुनीता आगे कहती है कि ये मामला बढ़ा तो इसे निपटाने कई अधिकारी आए। उन्होंने न्याय के वादे भी किए। लेकिन मुझे उन पर यकीन नहीं है। न्याय- व्याय नहीं मिलने वाला कुछ। ऐसे ही टरकाएंगे मुझे। मैंने 7 दिन नौकरी की फिर मुझे निकाल दिया। अब तुरंत तैनात किया जाए तो ही मानूँगी की न्याय मिला है।