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वीर सावरकर की किताब ‘भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम’ से डर गए थे अंग्रेज। लगा दिया था बेन

वीर सावरकर की इस क़िताब से हिल सकती थी अंग्रेजों की चूलें, सावरकर से कांपती थी अंग्रेजी हुकूमत...

एक बात तो सही है कि विनायक दामोदर सावरकर और महात्मा गांधी की विचारधारा में कोई मेल कभी नहीं रहा। जी हां गांधीजी जीवन भर अहिंसा पर जोर देते रहें तो वहीं सावरकर अति उग्र क्रांति का समर्थन करते रहे। लेकिन दोनों के इस दुनिया से विदा होने पर भी उनसे जुड़े विवाद थमने का नाम नहीं ले रहे। बता दें कि ताजा विवाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बयान को लेकर है।

सावरकर ने जेल से छूटने के लिए अंग्रेजों से कई बार माफी मांगी, यह तो सब जानते हैं, लेकिन रक्षा मंत्री का कहना है कि सावरकर ने गांधी जी के कहने पर ऐसा किया। फ़िर ऐसे में इस विषय पर बहस होना तो लाज़िमी है ही और हो भी रही। लेकिन आज हम आपको एक ऐसी बात बताने जा रहें जो सावरकर से ही जुड़ी हुई है।

गौरतलब हो कि शायद ही आपको मालूम हो कि सावरकर की किताब पर अंग्रेजों ने प्रतिबंध तक लगा दिया था, तो आइए हम आपको बताते है कि आख़िर उस किताब में ऐसा क्या था, जिससे अंग्रेज तक डर गए थे। बता दें कि वीर सावरकर को लेकर वामपंथी इतिहासकारों ने शब्दों का भ्रमजाल बुना। उन्होंने इस कदर उनके खिलाफ माहौल बनाया कि आज जिस सावरकर को आधुनिक भारत के निर्माता के तौर पर जानना चाहिए था उनका वजूद ही सवालिया निशान के साथ स्थापित हो गया।

लेकिन, झूठ के पांव तो होते नहीं और काठ की हांडी तो एक ही बार चढ़ती है। ऐसे में वामपंथी लेखकों की साजिश भी छिपी ज़्यादा समय तक नहीं रह सकी। जी हां बता दें कि सावरकर को लेकर महात्मा गांधी का रुख बेहद स्पष्ट था। जिस क्षमादान पत्र के जरिए सावरकर की वीरता पर सवाल उठाए जाते हैं, देखिए खुद महात्मा गांधी ने उस विषय में क्या लिखा है। महात्मा गांधी ने अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में 26 मई, 1920 को प्रकाशित लेख ‘सावरकर ब्रदर्स’ में गांधी जी ने लिखा है कि,

Veer Savarkar

“भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों की कार्रवाई के चलते कारावास काट रहे बहुत से लोगों को शाही क्षमादान का लाभ मिला है। लेकिन कुछ उल्लेखनीय राजनीतिक अपराधी हैं, जिन्हें अभी तक नहीं छोड़ा गया है। इनमें मैं सावरकर बंधुओं को गिनता हूं। वे उन्हीं संदर्भों में राजनीतिक अपराधी हैं, जिनमें पंजाब के बहुत से लोगों को कैद से छोड़ा जा चुका है। इस बीच क्षमादान घोषणा के पांच महीने बीत चुके हैं फिर भी इन दोनों भाइयों को स्वतंत्र नहीं किया गया है।”

इस वज़ह से सावरकर से कांपती थी ब्रितानी हुकूमत…

Veer Savarkar

बता दे कि अब सवाल ये है कि क्षमादान मांगने के बावजूद ब्रितानी हुकूमत सावरकर की रिहाई आखिर क्यों नहीं कर रही थी? दरअसल वो जानती थी कि सावरकर हिन्दुस्तान को अपनी मातृभूमि ही नहीं बल्कि एक पुण्य भूमि भी मानते हैं और रिहा होने के बाद वे दोबारा से स्वतंत्रता संग्राम का अलख जगाना शुरू कर देंगे। ऐसे में ब्रितानी हुकूमत सपने में भी यह क़दम उठाने से डरती थी।

गांधी ने कई बार बताया है प्रेरक…

Veer Savarkar

वहीं लेफ्ट लिबरल गैंग को बेशक ये बात समझ में ना आई हो कि सावरकर ब्रितानी हुकूमत के लिए कितनी बड़ी चुनौती थे लेकिन फिरंगी उसी समय समझ गए थे कि जिस शख्स का नाम विनायक दामोदर सावरकर है वो अकेले अपने दम पर ही ब्रितानी हुकूमत की चूले हिलाने का माद्दा रखता है और इस सच को गोरे फिरंगियों के अलावा बापू ने भी महसूस किया था। तभी तो उन्होंने अपने पत्र यंग इंडिया में लिखा था कि मौजूदा शासन-प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले देख लिया था।

सावरकर की किताब और अंग्रेजों का डर…

बता दें कि अपने इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान सावरकर ने ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस 1857’ नामक एक क्रांतिकारी किताब लिखी। ये किताब हिंदुस्तान के क्रांतिकारियों के लिए गीता साबित हुई, क्योंकि सावरकर की इस किताब के आने से पहले लोग सन 1857 की क्रांति को महज एक सैनिक विद्रोह ही मानते थे लेकिन इस किताब के जरिए सावरकर ने मुख्य रूप से दो चीजें हिन्दुस्तानियों के मन में पूरी तरह स्थापित कर दी।

Veer Savarkar

बता दें कि इसमें पहली बात ये थी कि 1857 में जो कुछ हुआ वो सिपाही विद्रोह नहीं बल्कि आजादी की पहली लड़ाई थी। वहीं दूसरी बात उन्होंने ये बताई कि किन गलतियों की वजह से 1857 का स्वतंत्रता आंदोलन नाकाम हुआ। आख़िर में जानकारी के लिए बता दें कि अंग्रेजों ने जब इस किताब का मजमून देखा तो उनके कान खड़े हो गए।

उन्हें लग गया कि अगर ये किताब हिन्दुस्तानियों के बीच पहुंच गई तो अगला अखिल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ना केवल बहुत जल्द शुरू हो जाएगा बल्कि उस विद्रोह को कुचलना भी नामुमकिन हो जाएगा। इसलिए फिरंगियों ने छपने से पहले ही सावरकर की इस किताब पर पाबंदी लगा दी थी।

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