एक समय संजय गांधी का चप्पल उठाने के लिए दौड़ पड़े थे ज्ञानी जैल सिंह, फिर बने थे राष्ट्रपति
गांधी परिवार का विवादों से रिश्ता सदैव रहा है। जी हां एक समय संजय गांधी ने अपने राजनीतिक प्रभाव और अपनी ख्याति, दोनों को काफी हद तक बढ़ा लिया था। हर मुख्यमंत्री को यही लगता था कि अगर संजय से मुलाकात नहीं हुई तो दिल्ली का दौरा अधूरा रहा। उनमें इस बात की होड़ लगी थी कि वे उन्हें अपने राज्य में आने का न्योता दें और सरकार प्रायोजित रैली से दिखाएं कि वह कितने लोकप्रिय हैं। इंदिरा गांधी भी सचमुच मानती थीं कि वे लोकप्रिय हैं।
एक बार चरणजीत यादव ने उनसे शिकायत करते हुए कहा कि संजय के ज्यादातर स्वागत प्रायोजित होते हैं। यह बात उन्हें अच्छी नहीं लगी और उन्होंने कहा कि, “कुछ लोग संजय से जलते हैं, क्योंकि वह लोकप्रिय है।” लेकिन श्रीमती गांधी को कभी-कभी इस बात से शर्म महसूस होती थी कि मुख्यमंत्री संजय को एयरपोर्ट पर लेने आते हैं। सिद्धार्थ रे ने यह बात उनके सामने रखी थी।
ऐसी थी संजय गांधी को रिसीव करने की व्यवस्था…
बता दें कि बरुआ के मार्फत उन्होंने यह संदेश भिजवाया कि वे उनके बेटे को रिसीव करने न जाएं। मुख्यमंत्रियों ने इस निर्देश को गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि जब भी संजय किसी राज्य में जाते, तब गृह मंत्रालय का एक सर्कुलर आता था कि उन्हें रिसीव करने के सामान्य बंदोबस्त किए जाएं। सब जानते थे कि सामान्य का मतलब क्या है।
मंत्रालय ने संजय की सुरक्षा को लेकर भी निर्देश जारी किए थे कि उनकी ओर से संबोधित बैठक में, लोगों को पिस्तौल की रेंज से दूर रखा जाए और मंच के पीछे बुलेट प्रूफ स्क्रीन होना चाहिए। बीच की जगह को पुलिस और सुरक्षाबल के जवानों से भरा जाना था। ये इंतजाम उन सुरक्षाकर्मियों के अतिरिक्त थे, जो दिन-रात उनकी सुरक्षा में तैनात रहते थे।
मंत्री के नाम पर लिए जाते थे वायुसेना के विमान…
वहीं मालूम हो कि संजय अक्सर राज्यों तक भारतीय वायु सेना के विमान से जाया करते थे। आधिकारिक तौर पर यह किसी मंत्री का दौरा होता था, लेकिन असल में यात्री संजय हुआ करते थे। आम तौर पर विमान की अर्जी मंत्री ओम मेहता दिया करते थे। श्रीमती गांधी के कार्यकाल से पहले गृह राज्यमंत्री को कभी वायु सेना के विमान के इस्तेमाल की अनुमति नहीं थी।
श्रीमती गांधी ने यह सुविधा उन्हें दी। धवन, और कभी-कभी शेषन यह इंतजाम करते थे कि किस मंत्री के नाम पर विमान लिया जाए। एक या दो बार ऐसा हुआ कि आखिरी समय में मंत्री नहीं गया और संजय ने अकेले ही यात्रा की।
जब संजय की चप्पल उठाने दौड़े थे ज्ञानी जैल सिंह…
बता दें कि अधिकांश मुख्यमंत्रियों को अब इतना तजुर्बा हो गया था कि श्रीमती गांधी चाहती हैं वे संजय के संपर्क में रहें। राजस्थान के मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी की खिंचाई एक बार इस वजह से ही की गई थी, क्योंकि राज्य के एक मामले में वह पहले संजय से मिलने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने इसकी भरपाई बाद में उनके जयपुर दौरे के लिए उनके स्वागत में 200 तोरण द्वार बनवाकर की।
श्रीमती गांधी ने वह दौरा रद्द करवा दिया, क्योंकि उस तरह की तैयारियों पर पैसे की बर्बादी से लोग भड़के हुए थे लेकिन जोशी ने अपनी वफादारी साबित कर दी थी। हितेंद्र देसाई, जो मोरारजी के बेहद करीब थे, लेकिन अब पाला बदलकर कांग्रेस में आ गए थे, ने श्रीमती गांधी के संकेत को गंभीरता से नहीं लिया था। नतीजा यह हुआ कि उन्हें श्रीमती गांधी से मिलने के लिए कई दिनों तक दिल्ली में डेरा डाले रहना पड़ा और वह फिर संजय से मिलने का इंतजार करते रहे।
ज्ञानी जैल सिंह के लिए धवन भी धवन जी थे, जो सम्मान का सूचक था। एक बार अपने विमान में सवार होते समय संजय का एक सैंडल नीचे गिर गया। जैल सिंह, जो एयरपोर्ट पर मौजूद थे, दूसरे कई लोगों की तरह ही उसे उठाने दौड़ पड़े थे। श्यामाचरण शुक्ला, जिन्हें सेठी की जगह मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया संजय की हर आज्ञा का पालन किया करते थे।
श्यामा लंबे समय तक उपेक्षित रहे थे और फिर से अंधेरे में नहीं जाना चाहते थे। अगर श्रीमती गांधी इसके बदले संजय का ख्याल रखवाना चाहती थीं तो श्यामाचरण इस कीमत को सहर्ष चुकाने को तैयार थे।
इमरजेंसी के प्रावधानों को स्थायी बनाने के हुए प्रयास…
वहीं गौरतलब हो कि संजय ने राजनीतिक प्रबंधन अच्छी तरह सीख लिया था। उन्होंने यूथ कांग्रेस के जरिए अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ानी शुरू कर दी थी। बरुआ ने ही उन्हें औपचारिक तौर पर कहा था कि यूथ कांग्रेस को सक्रिय बनाएं। उन्होंने पश्चिम बंगाल के सीपीआई समर्थक नेता प्रियरंजन दासमुंशी को अध्यक्ष पद से हटाने और पंजाबी लड़की अंबिका सोनी को उस पर बिठाने का प्रयास शुरू कर दिया।
लेकिन संजय की सबसे बड़ी चिंता इमरजेंसी को संस्थागत रूप देने की थी, क्योंकि उनकी मां अक्सर कहा करती थीं कि इसे हमेशा के लिए जारी नहीं रखा जा सकता और इसके बदले किसी सुरक्षित, भरोसेमंद और स्थायी व्यवस्था का निर्माण करना पड़ेगा। संजय ने इसकी शुरुआत एक बार फिर प्रेस से की। शुक्ला ने बताया था कि कमोबेश सारे अखबार और पत्रकार काबू में आ गए हैं और उनसे कोई खतरा नहीं है।
वे अब स्वयं ही सेंसर का काम करने लगे हैं। आपत्तिजनक सामग्री प्रकाशन निरोध अधिनियम को एक अध्यादेश के जरिए फिर से जिंदा किया गया, जिसने ऐसे शब्दों, संकेतों या दृश्य को प्रतिबंधित किया, जो भारत में या किसी भी राज्य में स्थापित सरकार के खिलाफ नफरत या तिरस्कार की भावना पैदा करे या असंतोष को भड़काए, जिससे कि सार्वजनिक अव्यवस्था का माहौल बने।
सरकार ने 40 से अधिक संवाददाताओं की मान्यता वापस ले ली। पत्रकारों को अपने अखबारों का प्रतिनिधित्व करने दिया गया लेकिन किसी भी बड़ी प्रेस कांफ्रेंस और संसद के सत्र में जाने के अधिकार छीन लिए गए। आख़िर में एक विशेष बात ये सभी घटनाक्रम कुलदीप नैयर की किताब ‘इमरजेंसी रीटोल्ड’ से लिए गए हैं और गांधी परिवार से जुड़ी इन कहानियां को लेकर आपके क्या विचार है, वह आप कमेंट बॉक्स में जाकर हमसे साझा कर सकते हैं।