राकेश टिकैत सिर्फ मोहरा, देश में दंगे करने और तोड़ने के लिए बाहर से की जा रही है करोडो की फंडिंग
किसान आंदोलन की कड़वी सच्चाई आई सामने, आंदोलन की आड़ में देश के टुकड़े करने की साजिश
तीनों कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसान आंदोलन को तकरीबन एक साल का समय हो चुका है. इस किसान आंदोलन के शुरू होने से अब तक करनाल से लेकर लखीमपुर तक आंदोलनकारियों के प्रेरणास्रोत कौन हैं. दीनबंधु छोटूराम, जो किसानों के मसीहा कहे जाते हैं. या फिर बाबा महेंद्र सिंह टिकैत, जिनके कहने भर से लाखों किसान दिल्ली घेर लेते थे. या फिर हरियाणा में किसानों के हक के लिए झंडा बुलंद करने वाले घासीराम नैन. ये तीनों ही नाम इस किसान आंदोलन का चेहरा नहीं है.
जरनैल सिंह भिंडरावाला किसान नेता भले ही नहीं रहे हो. उन्होंने किसानों के लिए कोई आंदोलन नहीं किया हो, बावजूद इसके हरियाणा-दिल्ली का कुंडली बार्डर हो या टीकरी बार्डर हर जगह उसके चित्र वाले झंडे लहराते हुए दिख जायेंगे. भिंडरावाले की तस्वीर पहने लोग मिल जाएंगे.
दिल्ली-उत्तर प्रदेश के गाजीपुर बार्डर पर भिंडरावाले के भक्तों की कमी नहीं है. हालांकि जैसे-जैसे भीड़ कम हो रही है तो खालिस्तान समर्थक भी कम होते जा रहे है. मगर अभी भी दबदबा उन्हीं का है. जब आंदोलनकारियों ने 27 सितंबर को भारत बंद का बुलाया था तो करनाल में बाजार बंद कराने वाले कुछ लोगों के हाथ में भिंडरावाले के चित्र वाले झंडे और टी शर्ट पर भिंडरावाले छपे थे.
ज्ञात होकि इस समय इस किसान आंदोलन के सबसे चर्चित नेता राकेश टिकैत हैं. वह भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष है. इसकी स्थापना उनके पिता ने की थी. उनकी तस्वीर किसी के हाथ में नहीं दिखती. राकेश टिकैत आंदोलन के अग्रणी नेता हैं. फिर भी उन्हें महेंद्र सिंह टिकैत के बजाय भिंडरावाला के झंडे और टी शर्ट पहने लोगों पर आपत्ति नहीं होती.
बता दें कि हरियाणा में भारतीय किसान यूनियन की दो स्वतंत्र इकाइयां प्रभाव में हैं. एक का नेतृत्व स्वर्गीय घासीराम नैन के पुत्र जोगेंद्र नैन करते हैं तो दूसरी का नेतृत्व गुरनाम चढ़ूनी द्वारा किया जा रहा है. वहीं इसकी तीसरी इकाई भूपेंद्र सिंह मान की है जो इस किसान आंदोलन के विरोध में है. मंच संचालन समिति द्वारा जोगेंद्र नैन निलंबित भी किए जा चुके हैं. इन्होने भी भिंडरावाले भक्तों को कुछ नहीं कहा. एक अन्य नेता रुलदू सिंह मानसा भी निलंबित किये जा चुके है.
यह एक मात्र नेता थे जिनका निलंबन खालिस्तानियों की आलोचना की वजह से हुआ था. किसी अन्य नेता ने इस पर आपत्ति तक नहीं की थी. खालिस्तानियों का इतना सपोर्ट करने वाले उल्टा कहते है कि यदि भारतीय जनता पार्टी वाले हमें खालिस्तानी कहेंगे तो हम उन्हें तालिबानी कहेंगे.
इन सब के बीच गौर करने वाली बात यह है कि, आंदोलनकारी संगठनों के लोग आफ द रिकार्ड इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्रदर्शनों में हिंसा भड़काने में खालिस्तान समर्थकों का ही हाथ रहता है. मगर सामने आकर इस बात को कोई नहीं बोलता. खुफिया एजेंसिया भी उन पर नज़र नहीं रखती है. 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर दिल्ली की सड़को पर हुए उग्र प्रदर्शन से भी किसी ने कोई सबक नहीं लिया. अगर ऐसा होता तो इन आंदोलनकारियों द्वारा ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होती, जो भारत बंद के दौरान देखीं गई.