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एक समय पिस्टल खरीदने के लिए बेचा था घर, अब बना गोल्ड मेडलिस्ट। जानिए मनीष की कहानी…

एक बड़ी ही अच्छी पंक्ति है कि, “रात नहीं ख्वाब बदलता है, मंजिल नहीं कारवाँ बदलता है; जज्बा रखो जीतने का क्यूंकि, किस्मत बदले न बदले, पर वक्त जरुर बदलता है।” जी हां ऐसा ही कुछ कर दिखाया है निशानेबाज मनीष नरवाल ने। नरवाल कई स्तर पर मुश्किलों का सामना कर रहे थे, लेकिन उन्होंने आगे बढ़ने और जीतने का जज़्बा नहीं खोया। जिसकी बदौलत वह टोक्यो पैरालंपिक में निशानेबाजी में स्वर्ण पदक जीतने में सफ़ल रहें।

Manish Narwal

बता दें कि मनीष नरवाल के पिता के पास उन्हें पिस्टल दिलाने के लिए पैसे नहीं थे। ऐसे में उनके पिता ने घर बेचकर उन्हें पिस्तौल दिलाई थी। बीए द्वितीय वर्ष के छात्र मनीष के कोच जेपी नौटियाल के मुताबिक, मनीष के घर के हालात ऐसे थे कि उनके पिता उन्हें पिस्टल नहीं दिला सकते थे। इसके कारण उन्हें साल 2015 में अपना मकान बेचना पड़ा। उस वक्त उनके लिए यह फैसला काफी कड़ा था, लेकिन मनीष ने दो साल के अंदर ही 2017 में जूनियर विश्व कीर्तिमान रचकर विश्व कप में स्वर्ण पदक जीता। जब उन्हें बीते वर्ष अर्जुन अवार्ड मिला तो पिता ने भी अपने काम को काफी फैला लिया।

Manish Narwal

जी हाँ मनीष पहले फुटबॉल खेलते थे, लेकिन एक बार चोट लग जाने के बाद उनके माता-पिता ने यह खेल छुड़वा दिया था। मनीष नरवाल का दायां हाथ बचपन से ही काम नहीं करता था। घर वालों ने डॉक्टर, अस्पताल से लेकर मंदिरों तक में मत्था टेका, लेकिन उन्हें मनीष का हाथ ठीक करने में सफलता नहीं मिली। मनीष समझदार हुए तो उनका पहला प्यार फुटबॉल बन गया। वे इस खेल को दीवानेपन की हद तक खेलते थे, लेकिन एक दिन फुटबॉल खेलने के दौरान उनके दाएं हाथ में उन्हें चोट लग गई। खून भी बहा, लेकिन उन्हें न तो दर्द हुआ और न ही चोट का पता लगा।

Manish Narwal

उसके बाद घर गए तो माता-पिता ने हाथ से खून बहता देखा तो उन्हें इसके बारे में पता लगा। माता-पिता ने उसी दिन उनकी फुटबॉल छुड़वा दी। पिता के एक दोस्त के कहने पर मनीष को निशानेबाजी शुरू कराई गई। उसमें भी उन्होंने झंडे गाड़ने शुरू किए तो पिस्टल की जरूरत पड़ी। पिस्टल खरीदने के लिए पैसे नहीं थे तो पिता दिलबाग ने सात लाख रुपए में मकान बेचकर बेटे को पिस्टल थमा दी।

Manish Narwal

19 साल के मनीष बताते हैं कि उन्हें फुटबॉल बहुत पसंद थी। वे इसी में अपना करियर बनाना चाहते थे, लेकिन हाथ में चोट लगने के बाद उनके पिता अपने दोस्त के कहने पर बल्लभगढ़ में कोच राकेश के पास लेकर गए। उनका दायां हाथ काम नहीं करता था तो बाएं हाथ से पिस्टल पकड़नी होती थी। शुरुआत में काफी दिक्कत आई लेकिन एक बार आदत पड़ गई तो सब ठीक होता गया। शूटिंग आगे जारी रखने के लिए उन्हें पिस्टल की जरूरत थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर के लिए मोरनी की पिस्टल चाहिए थी।

पिता का छोटे-मोटे पुर्जे बनाने का काम था। इससे पिस्टल खरीदना संभव नहीं था। पिता के पास एक छोटा मकान था। उन्होंने इसे सात लाख रुपए में बेचकर उन्हें पिस्टल दिला दी। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और उसी बेटे ने पिता को बेचे गए मकान के बदले पैरालंपिक का स्वर्ण लाकर उसकी कीमत अदा कर दी।

Manish Narwal

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