हर विद्वान व्यक्ति के व्यवहार में होते हैं ये गुण, स्वयं को परखें क्या आपमें भी हैं ये गुण!
बहुत पहले की बात है। अपने शहर से दूर के शहर में एक विद्वान शास्त्रार्थ करने के लिए गया। उसनें शहर में जाते ही लोगों से वहां के सबसे विद्वान व्यक्ति के बारे में पूछताछ की। लोग उस विद्वान को शहर के प्रमुख विद्वानों के पास ले गए। लोगों ने कहा कि हमारे यहां सनातन गोस्वामी और उनके भतीजे जीव गोस्वामी ही सबसे बड़े विद्वान हैं।
अगर उन्होंने आपको विजेता के रूप में स्वीकार कर लिया और मान्यता पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया तो आज से हम भी आपको ज्ञानी मान लेंगे। दूसरे शहर से आया हुआ वह विद्वान सोच में पड़ गया। वह शहर के सबसे विद्वान सनातन गोस्वामी के पास पहुंचा। वह विद्वान सनातन गोस्वामी से बोला, महाराज या तो आप मुझसे शास्त्रार्थ कीजिये या मुझे मान्यता पत्र दे दीजिये।
यह सुनकर सनातन गोस्वामी बोले, अभी हमने स्वयं शास्त्रों का मर्म नहीं समझा है। हम तो केवल महान विद्वानों के सेवक हैं। यह कहते हुए उन्होंने दूसरे शहर से आये हुए विद्वान के मान्यता पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। वह विद्वान मान्यता पत्र लेकर खुशी-खुशी जा रहा था। अचानक रास्ते में उसे जीव गोस्वामी मिल गए। विद्वान ने उनसे भी कहा कि या तो आप मुझसे शास्त्रार्थ कीजिये या इस मान्यता पत्र पर हस्ताक्षर कीजिये।
यह सुनकर जीव गोस्वामी बोले कि मैं तुमसे शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार हूं। दोनों विद्वानों में शास्त्रार्थ शुरू हो गया। शहर के सभी लोग शास्त्रार्थ का मुकाबला उत्सुकतापूर्वक देख रहे थे। लम्बे समय तक चलने के बाद उस शास्त्रार्थ में जीव गोस्वामी ने दूसरे शहर से आये हुए विद्वान को हरा दिया। वह विद्वान दुखी होकर उस शहर से चला गया। जीव गोस्वामी ने अपनी विजय के बारे में सनातन गोस्वामी को बताया।
सनातन गोस्वामी को उनकी विजय के बारे में जानकर खुशी नहीं हुई। उन्होंने जीव गोस्वामी से कहा कि एक विद्वान को अपमानित करके तुम्हें अवश्य थोड़ा यश मिल गया, लेकिन क्या करोगे इस यश का? यह यश केवल तुम्हारे अहंकार को बढ़ाने का काम करेगा, और अहंकारी व्यक्ति ज्ञान की साधना नहीं करता है। अगर तुम उस विद्वान को विजयी मान लेते तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता? हमारे लिए यश-अपयश, सुख-दुःख, जीवन-मरण, शत्रु-मित्र सभी एक समान होते हैं। एक ज्ञानी व्यक्ति को हार-जीत के चक्कर में कभी नहीं पड़ना चाहिए।