नाश्ते की एक छोटी सी दुकान कैसे बन गई हल्दीराम नाम का वैश्विक ब्रांड। जानिए हल्दीराम की कहानी
हल्दीराम, आज के समय में एक ऐसा नाम बन गया हैं। जिसके प्रोडक्ट्स लगभग हर घर के लिए आम हो गए हैं। बता दें कि कहीं भी किसी भी प्रकार की पार्टी हो। अगर उस पार्टी में नाश्ते के रूप में हल्दीराम की नमकीन न हो तो वह पार्टी अधूरी- अधूरी सी लगती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि आज़ादी से पहले हल्दीराम की शुरुआत एक छोटी सी दुकान के रूप में हुई थी और फिर आज़ादी के बाद हल्दीराम ने कामयाबी का ऐसा झंडा गाड़ा की वह अब नंबर-1 ब्रांड बन गया। बता दें कि हल्दीराम की शुरुआत बीकानेर के एक बनिया परिवार से होती है। जिनका नाम तनसुखदास, जिनकी मामूली सी आमदनी से किसी तरह परिवार का गुजारा हो रहा था। इसी बीच आज़ादी के करीब 50-60 साल पहले वो अपने परिवार की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे थे।
तनसुखदास के बेटे भीखाराम अग्रवाल नए काम की तलाश में थे। उन्होंने अपने और अपने बेटे चांदमल के नाम पर “भीखाराम चांदमल” नामक एक दुकान खोली। उन दिनों बीकानेर में भुजिया नमकीन का स्वाद लोगों को काफी पसंद आ रहा था। फ़िर क्या था उन्होंने भी भुजिया नमकीन बेचने की सोची। भीखाराम ने भुजिया बनाने की कला अपनी बहन ‘बीखी बाई’ से सीखी और उनकी बहन ने अपने ससुराल से भुजिया बनाना सीखा था। बीखी जब भी अपने मायके आती तो भुजिया साथ लेकर आतीं।
गौरतलब हो कि उनके मायके वाले उस भुजिया को काफी पसंद करते थे। बहरहाल, भीखाराम ने भी भुजिया बनाकर अपनी दुकान में बेचना शुरू कर दिया। लेकिन उनकी भुजिया बाज़ार में बिकने वाली भुजिया की तरह साधारण थी। ऐसे में बस किसी तरह उनकी रोजी-रोटी चल रही थी। फिर सन् 1908 में भीखाराम के घर उनके पोते गंगा बिशन अग्रवाल का जन्म हुआ उनकी माता उन्हें प्यार से हल्दीराम कह कर पुकारती थीं। जब हल्दीराम का जन्म हुआ तो उनके दादा की उम्र महज 33 साल थी। उस ज़माने में जल्दी शादी हो जाया करती थी। खैर जो भी हो लेकिन हल्दीराम ने बचपन से ही घर में नमकीन बनते देखी।
छोटी सी उम्र में ही वे घर व दुकान के कामों में हाथ बटाने लगे। वे काम करने में कभी नहीं हिचकिचाते थे। उनके अंदर सबसे अच्छी खूबी यह थी कि वे किसी काम को बड़ी मेहनत व लगन से जल्दी सीख लेते थे। उन्होंने जल्द ही भुजिया बनाना सीख लिया और महज 11 साल की उम्र में हल्दीराम की शादी चंपा देवी से हो गई।
शादी के बाद जिम्मेदारी बढ़ जाना स्वाभाविक बात है। वही हुआ हल्दीराम के साथ और शादी के बाद उनकी जिम्मेदारियां बढ़ गईं। हल्दीराम ने अपने दादा की भुजिया वाली दुकान पर बैठना शुरू कर दिया। उनकी भुजिया बाज़ार में बिकने वाली भुजिया से कुछ ख़ास नहीं थी। वे भुजिया के व्यापार को बढ़ाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें कुछ अलग करने की जरूरत थी। ऐसे में हल्दीराम ने अपनी भुजिया के स्वाद को बढ़ाने के लिए कुछ बदलाव किया। उसमें उन्होंने मोठ की मात्रा को बढ़ा दिया। उस भुजिया का स्वाद उनके ग्राहकों को काफी पसंद आ गया और उनकी भुजिया बाज़ार में बिकने वाली भुजिया से काफी जायकेदार और अलग थी।
समय के साथ परिवार बढ़ता रहा। पारिवारिक झगड़े भी उन्हें परेशान करने लगे थे। हल्दीराम ने अंत में परिवार से अलग होने का फैसला ले लिया और उन्हें पारिवारिक व्यापार से कुछ नहीं मिला।
इन सबके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी। परिवार से अलग होने के बाद हल्दीराम ने बीकानेर में साल 1937 में एक छोटी सी नाश्ते की दुकान खोली। जहां बाद में उन्होंने भुजिया बेचना भी शुरू कर दी। वह इसके जरिए मार्केट में अपना नाम जमाना चाहते थे। कहा जाता है कि हल्दीराम हमेशा अपनी भुजिया का स्वाद बढ़ाने के लिए कुछ न कुछ बदलाव या एक्सपेरिमेंट करते रहते थे। अभी तक मार्केट में लोगों ने जिस भुजिया का स्वाद चखा था वो थोड़ी नरम, मोटी और गठिये के समान थी।
इस बार उन्होंने उसके रूप को ही बदल डाला और हल्दीराम ने एक दम पतली भुजिया बना डाली। ये बहुत ही चटपटी और क्रिस्पी थी। इस तरह की भुजिया अब तक मार्केट में नहीं आई थी।
वहीं जब लोगों ने हल्दीराम की इस भुजिया का स्वाद चखा तो उन्हें काफी पसंद आया। उनकी चटपटी और स्वाद से भरपूर भुजिया खरीदने के लिए दुकान के सामने लाइन लगने लगी और पूरे शहर में उनकी दुकान ‘भुजिया वाला’ के नाम से पहचानी जाने लगी थी। बाद में उन्होंने अपनी दुकान का नाम अपने नाम पर ‘हल्दीराम’ रख दिया। इसके बाद धीरे- धीरे उनका कारोबार एक्स्पेरिमेंट और उनके मनोबल के आधार पर बढ़ता गया और साल 1970 में पहला स्टोर नागपुर में खोला गया। वहीं साल 1982 में देश की राजधानी दिल्ली में दूसरा स्टोर खुला। इतना ही नहीं दोनों जगहों पर मैन्युफैक्चरिंग प्लांट्स लगाए गए।
इसके बाद पूरे देश में हल्दीराम के प्रोडक्ट्स बिकने लगे थे। देखते ही देखते हल्दीराम की मांग विदेशों में भी होने लगी। अब देश के साथ विदेशों में भी हल्दीराम ने अपना व्यापार फैला दिया। उनके प्रोडक्ट्स की क्वालिटी और स्वाद ने कंपनी को नंबर वन ब्रांड बना दिया।
एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2013-14 के बीच हल्दीराम का दिल्ली वाली हल्दीराम कंपनी का रेवेन्यू 2100 करोड़ रूपये था। वहीं नागपुर वाली कंपनी का सालाना रेवेन्यू 1225 करोड़ और नागपुर वाली कंपनी का सालाना मुनाफा 210 करोड़ रुपए था। इतना ही नहीं साल 2019 आते आते हल्दीराम का सालाना रेवेन्यू 7,130 करोड़ रुपए था। इसके अलावा बात करें तो एक रिपोर्ट के अनुसार, हल्दीराम के प्रोडक्ट्स बनाने के लिए सालाना 3.8 अरब लीटर दूध, 80 करोड़ किग्रा मक्खन और 62 लाख किग्रा आलू की खपत होती है।
हल्दीराम ब्रांड के तहत लोगों को न सिर्फ भुजिया बल्कि कई प्रकार की स्वादिष्ट नमकीन, स्नैक्स, और फ़ूड प्रोडक्ट्स समेत 400 से अधिक प्रोडक्ट्स का स्वाद चखने को मिलता है। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि किस तरीक़े से एक छोटी सी दुकान का मालिक आज स्वाद के मामले में देश ही नहीं दुनिया पर राज करता है। हाँ इस कहानी से हमें जो सीख मिलती है। वह यह है कि व्यक्ति को प्रयास सदैव करते रहना चाहिए, मुश्किलें चाहें जितना आएं। एक तरीक़े से सफ़लता न मिलें तो हमें हल्दीराम जैसे नए तरीक़े का एक्सपेरिमेंट करना चाहिए न कि हार मानकर बैठ जाएं। एक बात सत्य है कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। भले सफ़लता थोड़ी देर से मिलें। ऐसी ही कुछ कहानी रही हल्दीराम की।