संजय गांधी का एक ऐसा सनक भरा फ़ैसला जिसने ले ली हजारों लोगों की आपातकाल में जान…
संजय गांधी के इस एक फ़ैसले ने उन्हें राजनीति में "विलेन" बना दिया...
आपातकाल के दौरान देश की स्थिति क्या थी। यह कोई बताने की बात नहीं। राजनीति की तरफ़ जिसका ज़रा सा भी झुकाव होगा। उसे पता होगा कि आपातकाल के दौरान देश की स्थिति क्या थी। कैसे देश तानाशाही की तरफ़ बढ़ गया था। देश पर किसी सरकार का शासन न होकर सिर्फ़ गांधी-नेहरू परिवार का वचन लागू हो रहा था।
संवैधानिक व्यवस्थाएं पंगु बनाने की साज़िश रची जा रही थी, लेकिन हम आज बात आपातकाल के काले क़िस्से की बात नहीं करने वाले। हम बात एक ऐसे क़िस्से की करने वाले। जिसकी सनक की वज़ह से एकाएक हजारों लोगों को मौत के नींद सुला दिया गया।
जी हां यह क़िस्सा ऐसा है, जो तानाशाह हिटलर की याद दिलाता है। तो आइए जानते है क्या है पूरी कहानी। बता दें कि आपातकाल के दौरान देश में एक संदेश प्रसारित होता है कि, “सबको सूचित कर दीजिए कि अगर मासिक लक्ष्य पूरे नहीं हुए तो न सिर्फ वेतन रुक जाएगा बल्कि निलंबन और कड़ा जुर्माना भी होगा। सारी प्रशासनिक मशीनरी को इस काम में लगा दें और प्रगति की रिपोर्ट रोज वायरलैस से मुझे और मुख्यमंत्री के सचिव को भेजें।”
बता दें कि यह टेलीग्राफ से भेजा गया एक संदेश है। इसे आपातकाल के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव ने अपने मातहतों को भेजा था। जिस लक्ष्य की बात इस संदेश में की गई है वह नसबंदी का है। इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि नौकरशाही में इसे लेकर किस कदर खौफ रहा होगा और यह सब आपातकाल के दौर में किसके इशारे पर हो रहा था इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी की शह पर।
गौरतलब हो कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने जोर-शोर से नसबंदी अभियान चलाया था। इस पर जोर इतना ज्यादा था कि कई जगह पुलिस द्वारा गांवों को घेरने और फिर पुरुषों को जबरन खींचकर उनकी नसबंदी करने की खबरें भी उस दौरान निकलकर सामने आईं थी। जानकारों के मुताबिक संजय गांधी के इस अभियान में करीब 62 लाख लोगों की नसबंदी हुई थी। वही बताया तो यह भी जाता है कि इस दौरान गलत ऑपरेशनों से करीब दो हजार लोगों की मौत भी हुई।
एक समय 1933 में जर्मनी में भी ऐसा ही एक अभियान चलाया गया था। इसके लिए एक कानून बनाया गया था जिसके तहत किसी भी आनुवंशिक बीमारी से पीड़ित व्यक्ति की नसबंदी का प्रावधान था। तब तक जर्मनी नाजी पार्टी के नियंत्रण में आ गया था। इस कानून के पीछे हिटलर की सोच यह थी कि आनुवंशिक बीमारियां अगली पीढ़ी में नहीं जाएंगी तो जर्मनी इंसान की सबसे बेहतर नस्ल वाला देश बन जाएगा जो बीमारियों से मुक्त होगी। बताते हैं कि इस अभियान में करीब चार लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी। लेकिन संजय गांधी के सिर पर नसबंदी का ऐसा जुनून क्यों सवार हो गया था कि वे इस मामले में हिटलर से भी 15 गुना आगे निकल गए? यह समझ से बाहर की बात है।
वैसे इसको लेकर राजनीतिक पण्डितों के कई मत हैं। जिनमें पहला तथ्य यह निकलकर आता है कि संजय की कम से कम समय में खुद को प्रभावी नेता के तौर पर साबित करने की महत्वाकांक्षा थी। वही दूसरी बात यह कि परिवार नियोजन को और असरदार बनाने के लिए भारत पर अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी से दबाव बढ़ रहा था। इसके अलावा तीसरी बात, जनसंख्या नियंत्रण के दूसरे तरीकों की बड़ी विफलता और चौथी आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश शक्ति थी।
25 जून 1975 को आपातकाल लगने के बाद ही राजनीति में आए संजय गांधी के बारे में यह साफ हो गया था कि आगे गांधी-नेहरू परिवार की विरासत वही संभालेंगे। संजय भी एक ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जो उन्हें कम से कम समय में एक सक्षम और प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित कर दे। उस समय वृक्षारोपण, दहेज उन्मूलन और शिक्षा जैसे मुद्दों पर जोर था, लेकिन संजय को लगता था कि उन्हें किसी त्वरित करिश्मे की बुनियाद नहीं बनाया जा सकता। फ़िर क्या उन्हें जनसंख्या नियंत्रण ही ऐसा मुद्दा लगा जिसके बल पर वह एक विराट नेता बनने की उधेड़बुन में उलझ गए।
इसी विषय को लेकर अपनी किताब ‘द संजय स्टोरी’ में पत्रकार विनोद मेहता लिखते हैं कि, “अगर संजय आबादी की इस रफ्तार पर जरा भी लगाम लगाने में सफल हो जाते तो यह एक असाधारण उपलब्धि होती। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा होती।” यही वजह है कि आपातकाल के दौरान परिवार नियोजन कार्यक्रम को प्रभावी तरीके से लागू करवाना संजय गांधी का अहम लक्ष्य बन गया। इस दौरान उन्होंने देश को दुरुस्त करने के अपने अभियान के तहत सौंदर्यीकरण सहित कई और काम भी किए, लेकिन अपनी राजनीति का सबसे बड़ा दांव उन्होंने इसी मुद्दे पर खेला। उन्हें उम्मीद थी कि जहां दूसरे नाकामयाब हो गए हैं वहां वे बाजी मार ले जाएंगे। लेकिन हड़बड़ी में तानाशाही का फ़ायदा उठाने के चक्कर में संजय गांधी ने कांग्रेस की लुटिया भी डूबो दी।
जी हां यह कार्यक्रम नसबंदी का बुरा नहीं था, लेकिन इतना बड़ा अभियान छेड़े जाने से पहले लोगों में इसको लेकर जागरूक करना था। जानकार भी कहते है कि इसे युद्धस्तर की बजाय धीरे-धीरे और जागरूकता के साथ आगे बढ़ाया जाता तो देश के लिए इसके परिणाम क्रांतिकारी हो सकते थे। लेकिन जल्द से जल्द नतीजे चाहने वाले संजय गांधी की अगुवाई में यह अभियान ऐसे चला कि देश भर में लोग कांग्रेस से और भी ज्यादा नाराज हो गए। जिसका खामियाजा इंदिरा गांधी को 1977 में सत्ता गंवाने के रूप में भुगतना पड़ा।