राहुल गाँधी राजनीति का एक ऐसा चेहरा जिससे राजनीति न हो पा रही और न ही छोड़ी जा रही…
राजनीतिक 'कुलीनता' की सिर्फ़ एक शान है राहुल गाँधी, वरना राजनीति में हर स्तर पर साबित हुए हैं नाकाम ...
कांग्रेस पार्टी इस समय ऐसी स्थिति से गुजर रही है, जिसमें उसके लिए एक तरफ कुआं है तो दूसरी ओर खाई। कांग्रेस के आंतरिक संकटों ने ही इस कुएं और खाई का निर्माण किया है। बीते कुछ दशकों में पार्टी में नेतृत्व के नाम पर केवल गांधी परिवार से ही कोई नाम सामने आता है। जिसमें सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बने।
राहुल के कुर्सी छोड़ने पर फिर से सोनिया गांधी उस पर आसीन हो गईं। पार्टी में बीते एक दशक से नेतृत्व को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है। जिस वज़ह से पार्टी का बेडा गर्त में जाता दिख रहा है। यह तो किसी को बताने की ज़रूरत नहीं कि जी-23 के नेताओं ने नेतृत्व में ऊपर से लेकर नीचे तक बदलावों की मांग पहले ही छेड़ रखी है, लेकिन इस सबके बावजूद आज भी पार्टी में कुलीनतंत्र हावी है।
कहीं न कहीं कांग्रेस पार्टी की समस्या ये है कि राजनीतिक ‘कुलीनता’ का यह भ्रम राहुल गांधी से आज तक दूर नहीं हो पाया है। इस दौरान राहुल गांधी के आस-पास कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता एक ‘दरबारी’ के रूप में ही रहे। इन नेताओं द्वारा की गई ‘जी हजूरी’ की वजह से राहुल गांधी को केवल नुकसान ही हुआ, लेकिन यह बात न सोनिया गाँधी को समझ आ रही और न ही राहुल गाँधी को। ऐसे में जब आज राहुल गाँधी 51 वर्ष के हो गए है। ऐसे में बड़ा सवाल यही है क्या अभी भी देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी राहुल गाँधी में ही अपना अक्स तलाशती रहेगी?
एक बात तो तय है कि भले राजनीतिक कुलीनता की वज़ह से कांग्रेस पार्टी राहुल गाँधी को ढो रही हो, लेकिन राजनीति के सबसे असफ़ल चेहरे की जब बात होगी तो उनका नाम सबसे पहले आएगा। राहुल गाँधी कांग्रेस पार्टी के लिए कहीं न कहीं राजनीतिक नासूर ही साबित हुए हैं। सोचिए जिस राहुल गाँधी को कांग्रेस प्रधानमंत्री का चेहरा मानती है, वह स्मृति ईरानी से अपने ही संसदीय क्षेत्र में हार जाते है। यह राहुल गाँधी के लिए बड़ा झटका था, लेकिन इससे न तो राहुल गाँधी ने सबक लिया और न ही कांग्रेस पार्टी ने। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से देश में 2019 लोकसभा चुनाव तक कुल 14 राज्यों में विधासभा चुनाव हुए। इन 14 राज्यों में से कांग्रेस सिर्फ चार राज्यों में ही अपनी सरकार बना पाई। जिसमें भी बाद में कांग्रेस को कर्नाटक और मध्य प्रदेश मुँह की खानी पड़ी। यह राहुल गाँधी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए हुआ। ऐसे में कहीं न कहीं राहुल गाँधी अध्यक्ष के रूप में भी फ़्लॉप साबित हुए।
अब कई बड़े नेता जिसमें राहुल गाँधी के क़रीबी मानें-जानें वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद शामिल है। वह भाजपा में शामिल हो गए और राहुल गाँधी सिर्फ़ तमाशा देखते रह गए। यह भी राहुल गाँधी की एक बड़ी राजनीतिक असफ़लता ही है। जिस नार्थ-ईस्ट में भाजपा एक समय राजनीतिक रूप से शून्य में विलीन थी। वह आज वहां अपना अधिपत्य जमा चुकी है, वहीं कांग्रेस का सफ़ाया वहां से भी लगभग हो गया है, लेकिन उस तरफ़ ध्यान राहुल गाँधी नहीं दे पा रहें है। आज़तक के राजनीतिक जीवन में राहुल गाँधी के नाम जितनी सफलता लगी है। उससे अधिक मौकों पर वह असफ़ल हुए है। इसके बावजूद भी कांग्रेस नामक नाव की पतवार गाहे-बगाहे राहुल गाँधी तक आकर ही सिमट जाती है।
एक बात पर गौर करें तो राहुल गाँधी भले लम्बे अर्से से राजनीति का हिस्सा बनें हुए है और आज उनकी उम्र 51 वर्ष की हो गई है, लेकिन उनमे राजनीति की वह समझ नहीं जो होनी चाहिए। तभी तो वह भाजपा के बने-बनाएं चक्रव्यूह में फंस जाते हैं। राहुल गाँधी कभी सॉफ़्ट हिंदुत्व का कार्ड खेलते तो कभी अल्पसंख्यक के पक्ष में खड़े हो जाते मतलब उनका स्टैंड कभी क्लियर नहीं दिखता, जो उन्हें राजनीतिक रूप से कमज़ोर बनाता है।
वही राहुल गाँधी समय-समय पर ऐसे विवादित या हास्यपद बयान भी दे जाते हैं, जो उनकी छवि को धूमिल करता है। 2007 में उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने कहा था कि, “यदि कोई गांधी-नेहरू परिवार से राजनीति में सक्रिय होता तो, बाबरी मस्जिद नहीं गिरी होती।” उनके इस बयान से सोच सकते कि कैसी सोच वह रखते है। कुल मिलाकर देखें तो राजनीतिक रूप से अभी तक राहुल गाँधी असफल ही रहें है। अगर इसमें बदलाव लाना है तो उन्हें भाजपा द्वारा लगाया गया अपने ऊपर से अल्पसंख्यक का टैग हटाना होगा। हिन्दुओ को अपने पाले में लाना होगा। इसके अलावा संगठन को दकियानूसी सोच से बाहर करना होगा। तब जाकर कुछ हालात बदल सकते हैं वरना उम्मीद कम ही है। वैसे भी राहुल गाँधी 51 वर्ष के हो गए है। ऐसे में अब ज़्यादा समय नहीं कि वह राजनीति में प्रयोग ही करते रहें।