अध्यात्मविशेष

शंख वादन से परहेज़ क्यों?

भारतीय संस्कृति में अहम स्थान रखता है शंख वादन

कोरोना की दूसरी लहर ने जब एकाएक हमारे देश में दस्तक दी। उसके बाद से ही वामपंथियों का दल सक्रिय हो उठा और कहने लगा कि क्या प्रधानमंत्री जी! इस बार भी शंख और दीये जलवाकर कोरोना को दूर भगाएंगे? स्वस्थ लोकतंत्र में सवाल उठना महती ज़रूरी है, लेकिन विषय का चुनाव तो सही होना चाहिए। शंख वादन और दीये जलाना तो भारतीय संस्कृति का अटूट हिस्सा रहा है। फ़िर उसपर सवाल क्यों? सवाल उठना चाहिए तो सरकार की नीतियों पर, अपनी संस्कृति को धत्त बताने की वामी आदत देश के लिए सही नहीं। ऐसे में आइए हम जानते हैं शंख का भारतीय संस्कृति में क्या है योगदान और शंख वादन क्यों है ज़रूरी।

भारतीय संस्कृति में शंख को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। माना जाता है कि समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से एक रत्न शंख भी था। अथर्ववेद के अनुसार शंख से राक्षसों का नाश होता है। भागवत पुराण में भी शंख का उल्लेख हुआ है। शंख में ओम ध्वनि प्रतिध्वनित होती है। ओम से ही वेद बने और वेद से ज्ञान का प्रसार हुआ। पुराणों और शास्त्रों में शंख ध्वनि को कल्याणकारी कहा गया है। इसकी ध्वनि विजय मार्ग प्रशस्त करती है। शंख का महत्व धार्मिक दृष्टि से ही नहीं वैज्ञानिक रूप से भी है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके प्रभाव से सूर्य की हानिकारक किरणें बाधित होती हैं इसीलिए सुबह और शाम शंख ध्वनि करने का विधान सार्थक माना जाता है। जाने-माने वैज्ञानिक डॉक्टर जगदीश चंद्र बसु के अनुसार इसकी ध्वनि जहां तक जाती है वहां तक व्याप्त बीमारियों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। इससे पर्यावरण शुद्ध होता है। शास्त्रों में इसे महा औषधि माना जाता है। शंख में प्राकृतिक कैल्शियम, गंधक आदि भरपूर मात्रा पाया जाता है। इसमें मौजूद जल सुभाषित और रोगाणु रहित हो जाता है। इस कारण शंख में रखे पानी का सेवन करने से हड्डियां मजबूत होती है और यह दांतों को स्वस्थ रखने में भी लाभकारी होता है। पूजा, यज्ञ एवं अन्य विशिष्ट अवसरों पर शंखनाद हमारी परंपरा में था क्योंकि शंख से निकलने वाली ध्वनि तरंगों में हानिकारक वायरस को नष्ट करने की क्षमता होती है।

1928 में बर्लिन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने शंख ध्वनि पर अनुसंधान कर इस बात को प्रमाणित किया था। दरअसल शंखनाद करने के पीछे मूल भावना यही थी कि इससे शरीर निरोगी हो जाता है। घर में शंख रखना और उसे बजाना वास्तु दोष को भी समाप्त कर देता है। यह भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर है। श्री कृष्ण के पास पाञ्चजन्य, अर्जुन के पास देवदत्त, युधिष्ठिर के पास अनंत विजय और इसके अलावा नकुल के पास सुघोष, सहदेव के पास मणिपुष्पक शंख था। सभी के शंखों का महत्व और शक्ति अलग अलग थी। शंखों की शक्ति और चमत्कारों का वर्णन महाभारत और पुराणों में मिलता है। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, शांति, यश कीर्ति और लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। हालांकि प्राकृतिक रूप से शंख कई प्रकार के होते हैं, लेकिन इनके तीन प्रमुख प्रकार हैं। पहला दक्षिणावर्ती शंख, दूसरा वामवर्ती शंख तो वही तीसरा मध्यवर्ती शंख।

वहीं शंख से जुड़ी एक कथा फ्रांस के नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम आफ टोउलोउस की है। जहां लगभग 18 हज़ार साल पुराना शंख है। यह कोई ऐसा वैसा शंख नहीं। इस शंख को म्यूजियम में 1931 में रखा गया था, लेकिन इसे कभी बजाया नहीं गया। उसके बाद जब कुछ समय पहले रिसर्चर ने इसे फूंका तो इसकी आवाज सुनकर लोग हैरत में हैं। इसके अलावा 18 हज़ार वर्ष पहले की सभ्यता के बारे में भी बातचीत कर रहे हैं। 1931 में इस शंख को पायरेनीस माउंटेंस के मार्सोउल्लास गुफा में पाया गया था। खोज करने वालों ने इसे म्यूजियम में स्टडी के लिए रख दिया था लेकिन तब से लेकर अब तक इसे किसी ने बजाया नहीं था। किसी को नहीं पता था कि यह शंख कैसी आवाज करता है, लेकिन प्रोफेशनल हॉर्न प्लेयर्स ने जब इसे बजाया तो इसमें से तीन नोट्स निकले। पहला सी, दूसरा सी शार्प और तीसरा डी। जिस पर अभी भी रिसर्च चल रही।

ऐसे में बिना सोचें-समझें भारतीय संस्कृति पर सवाल खड़ें करने से बाज़ आना चाहिए। ज़रा सोचिए क्या कोई चीन में रहकर वहां की संस्कृति पर सवाल खड़े कर सकता। हमारे देश में तो देवी-देवताओं पर भी सवाल खड़े किए जाते जो निहायती ग़लत है। नकारात्मक माहौल को दूर करने के लिए अगर प्रधानमंत्री शंख और दीया जलाने की बात कहते तो इसमें ग़लत क्या? व्यक्ति आज कोरोना पेंडेमिक से ज़्यादा इंफोडेमिक का शिकार है। ऐसे में सकारात्मक माहौल के लिए कुछ तो होना चाहिए। ऐसे में व्यक्ति विरोध कीजिए, पार्टी की नीतियों का विरोध किजिए, लेकिन भारतीय संस्कृति और परंपरा को बदनाम न कीजिए, वह भी सिर्फ़ राजनीति के लिए।

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