विश्वकर्मा द्वारा बनाई गई भगवान जगन्नाथ की मूर्ति अधूरी रह गई थी, पढ़ें इससे जुड़ी ये रोचक कथा
श्री जगन्नाथ मंदिर भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है और इस मंदिर से बेहद ही रोचक कथाएं जुड़ी हुई हैं। ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित ये मंदिर काफी भव्य तरीके से बनाया गया है और इस मंदिर में आकर भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने से हर कामना पूरी हो जाती है। इस मंदिर में भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को जगन्नाथ नाम से जाने जाते हैं। हर साल जगन्नाथ की यात्रा भी निकाली जाती है। जिसमें भारी संख्या में लोग शामिल होते हैं।
जगन्नाथपुरी चार धामों में से एक है। जो कि वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है। इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा की मूर्ति स्थापित है और हर साल इन तीनों की रथ यात्रा निकाली जाती है। इन तीनों की मूर्ति को अलग-अलग भव्य रथों में विराजमान किया जाता है और इनके रथ को हाथों से खींचा जाता है।
इस मंदिर से जुड़ी कथा के अनुसार मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को एक दिन सपना आया था। सपने में इन्हें भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से बनी हुई मूर्ति अगरु वृक्ष के नीचे दबी हुई दिखाई गई। इन्होंने फिर विष्णु जी की कड़ी तपस्या की और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णु जी ने उन्हें बताया कि वो पुरी के समुद्र तट पर जाएं। इस जगह पर उन्हें एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। इसी लकड़ी से वो उस मूर्ति को बना दें। जिसके बाद राजा ने समुद्र तट जाकर लठ्ठा ले ली।
लकड़ी मिलने के बाद राजा इस सोच में पड़ गए की वो किससे मूर्ति का निर्माण करवाएं। तभी विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में राजा के पास आए। इन्होंने राजा से कहा कि वो मूर्ति का निर्माण कर देंगे। लेकिन जिस कक्ष में वो मूर्ति बनाएंगे। वहां कोई भी न आए। इन्होंने राजा से मूर्ति बनाने के लिए एक महीने का समय भी मांगा। राजा ने इनकी बात को मान लिया और उस कमरे में किसी को भी प्रवेश न करने को कहा जहां पर मूर्ति बन रही थी।
एक माह पूरा हो चुका था। कई दिनों तक कमरे से कोई आवाज नहीं आई। जिसके कारण राजा ने दरवाजा खोल दिया और कमरे में झांका दिया। तभी एक वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और उसने मूर्ति को पूरा बनाने से मना कर दिया। इन्होंने राजा से कहा कि ये मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं। उनके हाथ अभी नहीं बने हैं। राजा ने शर्त को तोड़ दिया इसलिए अब वो जा रहे हैं। मूर्तिकार ने कहा कि यह सब दैववश हुआ है। राजा को इस बात का बेहद अफसोस हुआ। वहीं तभी से ये मूर्तियां इसी तरह स्थापित है और इसकी पूजा की जाती है। इसके बाद ही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गई।
वहीं चारण परंपरा में लिखी गई कथा के अनुसार, यहां पर भगवान कृष्ण के अध जले शव आए थे। इन्हें प्राचि में प्रान त्याग के बाद समुद्र किनारे अग्निदाह के लिए लाया गया था। इसमें द्वारिकाधीश, बलभद्र और शुभद्रा तीनों ही थे। समुद्रा में उफान आते ही तीनों के अध जले शव बह गए। ये तीनों शव पुरी में निकले। पुरी के राजा ने तीनों के शव को अलग-अलग रथ में रख दिया और लोगों ने उन्हें पूरे नगर में घुमाया। आखिरी में जो दारु का लकड़ा शवों के साथ तैर कर आया था उसकी पेटी बनाई गई। उसमें ही उन्हें धरती माता को समर्पित किया गया। हालांकि कई लोगों का माना है कि कृष्ण जी यहां पर जीवित ही आए थे।