तो सिर्फ अपने इस गुण के कारण वशिष्ठ बने भगवान राम के गुरु
रामायण के अनुसार प्रभु राम के पिता राजा दशरथ के यहां कोई संतान नहीं हो रही थी। निराश होकर, गुरु वसिष्ठ से कहा। गुरु वसिष्ठ के कहने पर यज्ञ हुआ, तो राम आए। राम जी को प्रकट कराने के अन्य कई कारण हैं, अन्य कई भूमिकाएं हैं, कई लोगों को श्रेय मिलेगा, लेकिन मुख्य श्रेय गुरु वसिष्ठ को मिलेगा। ईश्वर को प्रगट होना है, तो कोई साधारण घटना नहीं होती। राम के रूप में ईश्वर प्रगट हुए, इसका एक कारण वसिष्ठ भी थे।
वसिष्ठ के काल में जितनी महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं, वे रामराज्य में सहायक बनीं। एक तरह से वे रामराज्य रूपी महल के संबल थे। भरत को ऐसा राज्य नहीं चाहिए जिसमें राम न हो। मगर पिता आदेश से बंधे राम नहीं मानते।
चरण पादुका लेकर भरत आते हैं, उसी को सिंहासन पर प्रतिष्ठित करके राज्य चलाते हैं। भरत नंदीग्राम में रह कर गुरु वसिष्ठ जी से आज्ञा मांग कर राज्य का संचालन करते थे। तो अभिप्राय यह कि वसिष्ठ जी ने अपने ज्ञान-पुण्य प्रताप से रघुवंश को ऊंचाई पर पहुंचा दिया।
ऋषि वसिष्ठ को राजा बने बिना जो सम्मान प्राप्त था उसके सामने राजा का पद छोटा दिखता था। वसिष्ठ संत शिरोमणि हैं, गुरु शिरोमणि हैं। ज्ञान शिरोमणि हैं, आध्यात्मिक संसार में जितने भी सोपान हो सकते हैं, उसके शिखर पर विद्यमान हैं गुरु वसिष्ठ। कालिदास ने लिखा है कि जो रघुवंशी थे, वे विद्या का अभ्यास करते थे। युवा अवस्था में विवाह करके और प्रजा के रंजन के लिए प्रजा की सेवा के लिए पुत्र की प्राप्ति करते थे, जहां वृद्धावस्था आई, वहां मुनि का जीवन जीते थे।
वैसे ही रघुवंशी लोग अपने प्राणों का त्याग करते थे। जिस वंश में राजा योगी के रूप में अपने जीवन का समापन करे, जिस वंश में राजा जहां ऋषियों के पुत्र पढ़ते थे, वहां पढ़े, ऋषियों जैसा जीवन जिए, यह कितना महान वंश है। विश्वामित्र, वसिष्ठ जी की गऊ कामधेनु पुत्री का नंदिनी का अपहरण करना चाहते थे। विश्वामित्र जी की सेना हार गई । ऋषि से पराजित होने के बाद विश्वामित्र जी को लगा कि सामान्य बल से तपोबल श्रेष्ठ है।
विश्वामित्र तपोबल अर्जित करने में जुट गए। फिर वसिष्ठ के पुत्रों को मार दिया, लेकिन वसिष्ठ जी ने अपने ऋषित्व को कहीं भी क्षतिग्रस्त नहीं होने दिया। विश्वामित्र ने फिर तपस्या शुरू की। कहते हैं कि उन्होंने महाराज सुदास को शाप देकर बारह वर्ष के लिए राक्षस बना दिया, उस राक्षस ने ही वसिष्ठ जी के पुत्रों को नष्ट कर दिया था।
सिष्ठ कभी क्रोधित नहीं होते थे। हमेशा ही संयमित और प्रसन्न रहते थे। जो गुरु की सबसे ऊंची स्थिति है, वे संयमित रहकर सबकुछ करते थे। यही कारण था कि अंत में विश्वामित्र जी को झुकना पड़ा। विश्वामित्र बोलते थे, जब तक वसिष्ठ जी मुझे ब्रह्मर्षि नहीं कहेंगे, तब तक मैं बह्मर्षि नहीं हूं। जिनके सौ बच्चों को नष्ट कर दिया, उन्हीं से ब्रह्मर्षि की उपाधि लेने की कोई कल्पना नहीं कर सकता। कितनी दयालुता होगी, कल्पना कीजिए, पुत्रों को मारने वाले को माफ कर दिया।
अध्यात्म रामायण में लिखा है कि यदि भरत शरीर छोड़ देते, तो राम मुश्किल में पड़ जाते। राम बार-बार दोहराते हैं कि पिता की कीर्ति अनुकरणीय है, अनुपम है, उसके लिए हम लोगों को प्रयास करना चाहिए। इन सभी क्रमों, स्थानों व्यवस्थाओं में गुरु वसिष्ठ की अहम भूमिका है और गुरु वसिष्ठ कहीं से भी लालची नहीं हैं, क्रोधी नहीं हैं, संपूर्ण ज्ञानी हैं।
वे केवल ज्ञानी ही नहीं हैं, ज्ञान उनके रोम-रोम में उतरा हुआ है। यदि किसी को संत में निष्ठा नहीं हो रही है, तो उसे वसिष्ठ जी को ही संत में रूप में देखते हुए प्रेरणा लेनी चाहिए। वसिष्ठ अद्भुत योगी हैं।