इस ट्रैफिक पुलिस कॉन्स्टेबल ने कायम की मिसाल, गरीब बच्चों को फ्री शिक्षा देकर संवार रहा भविष्य
आजकल के समय में शिक्षा बहुत जरूरी मानी गई है। शिक्षा के बगैर देश का विकास हो पाना बेहद मुश्किल है। समय के साथ-साथ ऐसे कई कदम उठाए जा रहे हैं जिससे ज्यादा से ज्यादा बच्चों को शिक्षित बनाया जा सके। बहुत से नेक इंसान ऐसे भी हैं जो गरीब बच्चों को अपने कीमती समय में से समय निकालकर पढ़ाते हैं। इसी बीच कोलकाता के पुलिस कॉन्स्टेबल ने मिसाल कायम की है। जी हां, यह ट्रैफिक कॉन्स्टेबल गरीब सबर आदिवासी समुदाय के बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दे रहा है।
जैसा कि हम सभी लोग जानते हैं एक ट्रैफिक कॉन्स्टेबल का कार्य सड़क पर वाहनों को प्रतिबंधित करना है परंतु कोलकाता में ट्रैफिक कांस्टेबल अरूप मुखर्जी एक पूरे समुदाय को शिक्षित करने का कार्य कर रहे हैं। यह समुदाय ऐसा है जो खुद को शबरी का वंशज कहता है जिन्होंने भगवान श्री राम जी को जूठे बेर खिलाए थे। आपको बता दें कि ट्रैफिक कांस्टेबल अरूप मुखर्जी ने वर्ष 1999 में कोलकाता पुलिस ज्वाइन की थी और तुरंत बचत करना शुरू कर दिया था। इस बचत से वह अपने बचपन का सपना पूरा करना चाहते थे। अरूप मुखर्जी ने 6 वर्ष की उम्र में ही एक स्कूल खोलने का सपना देखा था। यह ट्रैफिक सिग्नल पर कार्य ना करके उस समय बेहद गरीब सबर आदिवासी समुदाय को बच्चों को पुनर्स्थापित कर रहे हैं।
खबरों के अनुसार ऐसा बताया जा रहा है कि अरूप मुखर्जी इस समुदाय के लोगों को अपने बच्चों को शिक्षा के लिए खुद के द्वारा स्थापित बोर्डिंग स्कूल भेजने के लिए मनाते हैं। मुखर्जी का पुंचा नबादिशा मॉडल स्कूल 126 सबर बच्चों के रहने, हर दिन पर्याप्त भोजन और मुफ्त में बुनियादी शिक्षा प्रदान करने का कार्य कर रहा है। अरूप मुखर्जी को इस क्षेत्र में सबर पिता के रूप में जाना जाता है। अरूप मुखर्जी का ऐसा कहना है कि जब यह बच्चे मुझे डैडी या बाबा कहते हैं तो मुझे बहुत खुशी महसूस होती है।
अरूप जी का ऐसा कहना है कि सबर जनजाति के बच्चों को शिक्षित करने का उनका जज्बा बचपन में आया था। उन्होंने कहा कि बचपन में जब भी कहीं चोरी डकैती हुआ करती थी तो दादा जी कहते थे कि इसमें शबरों का हाथ है। जब मैं उनसे पूछता था कि ऐसा क्यों करते हैं तो मेरे दादा जी कहते थे कि वह लोग भूख और शिक्षा के अभाव में ऐसा करते हैं। तब अरूप मुखर्जी ने अपने दादा जी से कहा था कि वह बड़े होकर उनके पढ़ने-लिखने और खाने पीने की व्यवस्था करेंगे। भले ही उस समय के दौरान उनके दादाजी ने इस बात को गंभीरता से ना लिया हो परंतु यह अब इनकी सेवा में जुटे हुए हैं।
आपको बता दें कि मुखर्जी ने वर्ष 2011 में अपनी बचत से स्कूल बनवाया था। कोलकाता से लगभग 280 किलोमीटर की दूर पुंचा गांव में बने स्कूल के लिए 2.5 लाख रुपए का प्रारंभिक फंड इन्होंने कुछ अपनी बचत से जुटाया था। इस रकम को एकत्रित करने के लिए इनको कर्ज भी लेना पड़ा था। इन्होंने एक दान की भूमि पर स्कूल बनवाया। अरूप मुखर्जी की जीतनी सैलरी आती है वह स्कूल पर ही खर्च कर देते हैं। इनके परिवार का गुजारा खेती-बाड़ी से होता है। सच मायने में देखा जाए तो अरूप मुखर्जी जो कार्य कर रहे हैं इसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है।