जानिये आखिर किस वजह से सिख धर्म में पुरुषों के नाम में ‘सिंह’ और महिलाओं के नाम में ‘कौर’ लगाया जाता है?
हमारे समाज में लोगों की पहचान उनके सरनेम अर्थात टाइटल से होती है. भारत में सरनेम ही आपका ओहदा होता है. हमारे समाज में हर जाति का अपना एक अलग सरनेम होता है. कुछ धर्म और समाज को छोड़ दें, तो हर जगह की महिला और पुरुष का सरनेम भी एक समान ही होता है. मगर सिख धर्म ही एक ऐसा इकलौता धर्म है, जहां पर ऐसी बात देखने को नहीं मिलती. सभी धर्मों के बजाय सिख धर्म में महिला और पुरुष के सरनेम अलग-अलग होते हैं. क्या आप कभी किसी सिख परिवार से मिले हैं या फिर उनसे ये जानने की कोशिश की कि पुरुषों के नाम के सरनेम और महिलाओं के सरनेम अलग क्यों होते हैं?
दरअसल, आप अगर पूरी दुनिया की चक्कर लगा लेंगे, तो आप पाएंगे कि हिंदू, मुस्लिम और क्रिश्चन धर्मों में जो पुरुषों का सरनेम होता है, वही महिलाओं का भी होता है. हर धर्म के जातियों में अलग-अलग सरनेम होता है. मगर इस दुनिया में एक धर्म ऐसा भी है, जिसमें जातियों के सरनेम नहीं होते, बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुषों और महिलाओं के सरनेम अलग-अलग होते हैं. सिख धर्म के जितने भी अनुयायी होते हैं, उनमें आप जाति विशेष में बंटे हुए नहीं पहचान पाएंगे, कारण कि उनके टाइटल सबके एक जैसे ही होते हैं. पुरुषों के सरनेम सिंह, तो सारी महिलाओं के कौर.
चलिए जानते हैं वजह:
इस नाम और सरनेम के पीछे भी बड़ी दिलचस्प कहानी है. माना जाता है कि सिख धर्म में प्रत्येक पुरुष के नाम के बाद सिंह और महिला के नाम के बाद कौर लगाना अनिवार्य माना गया है. पुरुषों के नाम में सिंह और महिलाओं के नाम में कौर को सिख धर्म की पहचान के रूप में भी जाना जाता है. जैसे कि गुरप्रीत सिंह, मनप्रीत कौर. मगर सिंह-कौर के इस्तेमाल के पीछे भी एक उद्देश्य है और एक खास परंपरा भी.
सिंह-कौर के इस्तेमाल के पीछे का रहस्य और इतिहास :
सिख धर्म में ऐसा माना जाता है कि सन् 1699 के आस-पास समाज में जाति प्रथा का बोलबाला था. जाति प्रथा हमारे समाज में इस कदर व्याप्त था कि यह एक अभिशाप बन गया था. जातिवाद को लेकर सिख के दसवें नानक ‘गुरू गोबिंद सिंह जी’ काफ़ी चिंतित रहा करते थे. वो इस प्रथा को किसी तरह खत्म करना चाह रहे थे. इसिलए उन्होंने 1699 में वैसाखी का पर्व मनाया. उस दिन उन्होंने अपने सभी अनुयायियों से एक ही सरनेम रखने का आदेश दिया ताकि इससे किसी की जाति पता न चले और जाति प्रथा पर लगाम लगे. इसलिए गुरु गोविंद सिंह ने पुरुषों को सिंह और महिलाओं को कौर के सरनेम से नवाजा.
आपको बता दें कि इस सरनेम का भी एक खास अर्थ होता है. सिंह का आशय शेर से था, तो कौर का आशय राजकुमारी से. गुरु गोविंद सिंह चाहते थे कि उनके सभी अनुयायी एक धर्म के नाम से पहचाने जाएं, न कि किसी अलग-अलग जाति से. इसिलए आप देखेंगे कि सिख धर्म में जाति प्रथा जैसी कोई बड़ी समस्या नहीं है, मगर हिंदू और मुस्लिम धर्म में ये प्रथा काफ़ी विकराल है.