ऐसा था मोहम्मद रफी की जिंदगी का आखिरी दिन, फकीरों का गाना सुन शुरु कर दिया था गाना
रफी साहब के सीने में दर्द था लेकिन संगीत के चलते उन्होंने ये दर्द नजरअंदाज कर दिया और ये ही सबसे बड़ी भूल हो गई
तुम मुझे यूं भूला ना पाओगे, हां तुम मुझे यूं भला ना पाओगे
जब कभी सुनोगे गीत मेरे संग संग मेरे तुम भी गुनगुनाओगे
हिंदी सिनेमा ने ऐसे-ऐसे फनकार दिए हैं जिनके गुजर जाने के बाद भी उनके गाए गीत और यादें लोगों के दिलों में जिंदा है। ऐसे ही एक फनकार थे मोहम्मद रफी जिनके जैसा गायक ना कभी पैदा हुआ और ना शायद कभी पैदा होगा। 31 जुलाई 1980 को रफी इस दुनिया से हमेशा के लिए चले गए थे और आज उनकी 40वीं पुण्यतिथि हैं। रफी एक महान गायक थे और संगीत में ही उनकी प्राण बसते थें, तभी अपने जीवन के आखिरी दिन भी रफी गाने में ही व्यस्त थे। आज उनके पुण्यतिथि के मौके पर आपको बताते हैं उनसे जुड़ी कुछ खास बातें।
फकीरों का गाना सुन शुरु कर दिया था गाना
24 दिसंबर 1924 को पंजाब को कोटला सुल्तान सिंह गांव में मोहम्मद रफी का जन्म हुआ था। हाजी अली मोहम्मद परिवार में जन्में रफी छह भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर थे। उन्हें घर में फीको कहा जाता था। रफी जब छोटे थे तभी से वो गली में भटकने वाले फकीरों के गाने सुनते थे और इसके बाद उन्होंने भी गाना शुरु कर दिया था। 1935 में रफी के पिता लाहौर चले गए और वहां भट्टी गेट के नूर मोहल्ले में हजामत बनाने का काम शुरु किया था।
मोहम्मद रफी के गुजर जाने के 8 साल बाद उनकी पत्नी बिलकिस ने एक इंटरव्यू में कई सारी दिलचस्प बातें बताई थीं। बिलकिस की बड़ी बहन की शादी रफी के बड़े भाई से हुई थी। उस समय बिलकिस महज 13 साल की थीं और छठीं की परीक्षा दे रही थीं। उनकी बहन ने उनसे कहा था कि कल रफी से तुम्हारी शादी होने वाली हैं। उन्हें शादी का मतलब भी नहीं पता था। शादी के वक्त रफी की उम्र 19 साल थी।
जीवन के अंतिम दिन भी गाने में डूबे थे रफी
रफी के बारे में बिलकिस ने एक और दिलचस्प बात बताई थी। रफी को पब्लिसिटी बिल्कुल पसंद नहीं थी। जब वो किसी शादी में जाते थे तो ड्राइवर से कहते थे कि यहीं खड़े रहे। इसके बाद वो सीधे जोड़े के पास जाकर उन्हें बधाई देते थे और अपनी कार में आ जाते थे। शादी में जरा देर भी नहीं रुकते थे।
निधन के कुछ दिन पहले ही कोलकाता से कुछ लोग उनसे मिलने पहुंचे थे। वो चाहते थे कि रफी काली पूजा के लिए गाना गाएं। रफी ने कभी बंगाली गाने नहीं गाए थे लेकिन इसके लिए वो तैयार हो गए। 31 जुलाई 1980 की सुबह रफी जल्दी उठ गए और नाश्ता करने के बाद बंगाली संगीतकार कमल घोष के बंगाली गीत का अभ्यास शुरु कर दिया। कमल घोष उनके घर पर ही आए थे क्योंकि स्वास्थ्य में आई परेशानी के चलते रफी घर के बाहर नहीं जा सके थे।
इस तरह बीता था जिंदगी का आखिरी दिन
घोष जी जैसे ही घर से निकले रफी के सीने में दर्द होने लगा। उनके साले जहीर भाई ने उन्हें सोनामेंट की टेबलेट दी। इससे पहले भी रफी साहब को दो हल्के अटैक आ चुके थे, लेकिन उन्होंने इस बात को नजरअंदाज कर दिया था। इसके बाद डॉक्टर को जांच के लिए बुलाया गया और उन्होंने कहा कि रफी साहब को दिल संबंधी समस्या हो रही है उन्हें अस्पताल में एडमिट करना होगा। रफी एंबुलेंस में नहीं जाना चाहते थे, इसलिए पैदल चलकर कार में गए।
इसके बाद दोपहर 2 बजे तक उन्हें माहिम के नेशनल अस्पताल में एडमिट करा दिया गया, लेकिन डॉक्टरों के पास पेसमेकर मशीन ही नहीं थी जो हार्ट पेशेंट के लिए जरुरी होती है। इसके बाद उन्हें बॉम्बे अस्पताल ले जाया गया जहां रास्ते में उन्हें दूसरा अटैक आ गया। शाम 6 बजे उन्हें अस्पताल में शिफ्ट किया गया जहां उन्हें पेसमेकर मशीन लगाई की लेकिन सही से इंस्टाल ना होने के चलते वो काम नहीं कर पाई।
जब तक दूसरी पेस मेकर मशीन का इंतजाम होता रात के 9 बज चुके थे। रात 9 बजे डॉक्टर K.M Modi और डॉक्टर Dagar ने रफी साहब को अटैंड किया, लेकिन उनकी हालत बिगड़ती जा रह थी। इसके बाद 10 बजकर 10 मिनट पर रफी साहब को तीसरा अटैक आया और उनकी सांस उखड़ गई। इस तरह लोगों को अपनी आवाज का दीवाना बनाने वाले मोहम्मद रफी हमेशा हमेशा के लिए चले गए।