45 साल पहले इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की आग में देश को झोंका था, तत्कालीन PM पर लगे थे ये 6 आरोप
भारत के इतिहास के पन्नों में 25 जून का दिन काले अक्षरों में लिखा गया है। यही वो दिन था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल (इमरजेंसी) लगाया था। इमरजेंसी की घोषणा होते ही देश की जनता दहशत में आ गई और इंदिरा गांधी ने बेकसूर जनता को परेशानियों के दलदल में धकेल दिया था। 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक यानी 21 महीने तक देश में आपातकाल जारी रहा, लेकिन आपातकाल की वजह क्या थी? इस सवाल के जवाब में इंदिरा गांधी सरकार ने तो कई दलीलें दीं, मगर पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और ही थी। आइये जानते हैं, आखिर क्या थी पूरी कहानी…
आपातकाल और उस समय की राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों का मानना है कि आपातकाल की नींव 12 जून सन 1975 को ही रख दी गई थी। 1971 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव जीतीं। इन चुनावों के बाद इंदिरा के विपक्षी राजनारायण जो संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव लड़ रहे थे, उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर दी। इस याचिका में राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर एक के बाद एक 6 आरोप लगाए थे। पहला आरोप – इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव में अपने निजी सचिव जो भारत सरकार के अधिकारी थे, उन्हें चुनाव एजेंट बनाया। दूसरा आरोप – इंदिरा गांधी ने राजनारायण के वोट काटने के लिए अद्वैतानंद को रिश्वत स्वरूप 50,000 रूपए दिए ताकि वो प्रत्याशी बनें और राजनारायण के वोट काटें।
याचिका में तीसरा आरोप था कि इंदिरा ने चुनाव प्रचार करने के लिए भारतीय वायुसेना के विमानों का गलत प्रयोग किया, जो असंवैधानिक है। राजनारायण का इंदिरा पर चौथा आरोप था – चुनाव जीतने के लिए इलाहाबाद के डीएम और एसपी का सहयोग लिया। पांचवा आरोप – इंदिरा ने मतदाताओं को प्रलोभन स्वरूप कंबल और शराब बांटे। छठा आरोप – इंदिरा ने चुनाव आयोग के आदेशों का उल्लंघन किया। और निर्धारित सीमा से अधिक पैसे खर्च किए।
खतरे में थी इंदिरा गांधी की कुर्सी
राजनारायण के इस याचिका पर इलाहाबाद हाइकोर्ट मेंं 12 जून सन 1975 को सुनवाई हुई। इस याचिका की सुनवाई इलाहाबाद हाइकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने की। इस सुनवाई में इंदिरा गांधी को सरकारी मिशनरी का दुरूपयोग का दोषी पाया गया। इसके अलावा अन्य सभी आरोपों को खारिज कर दिया गया। सरकारी मिशनरी के दुरूपयोग के दोषी पाए जाने से जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के रायबरेली सीट से निर्वाचन को रद्द कर दिया था। इतना ही नहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 6 साल तक उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इस केस में प्रतिष्ठित अधिवक्ता शांति भूषण राजनारायण के वकील थे।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद राजनीतिक गलियारों में हलचल तेज हो गई। हाईकोर्ट के आदेशानुसार इंदिरा को प्रधानमंत्री का पद छोड़ना पड़ता, इसी बीच पीएम आवास 1 सफदरजंग रोड पर एक इमरजेंसी मीटिंग बुलाई गई। इस बैठक में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष डीके बरूआ भी मौजूद थे। उन्होंने इंदिरा को सलाह दी कि अंतिम फैसला जब तक नहीं आ जाता, तब तक आप कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभाल लें और मैं पीएम पद देख लूंगा। बता दें कि उस बैठक में संजय गांधी भी मौजूद थे और उन्हें ये सलाह पसंद नहीं आई।
सुप्रीम कोर्ट जाने की सलाह संजय गांधी ने दी थी
संजय गांंधी ने इंदिरा को सलाह दी कि वो हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करें। संजय के सलाह को मानते हुए इंदिरा ने 23 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर दी। इस याचिका पर 24 जून 1975 को जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने सुनवाई की। उन्होंने अपने फैसले में कहा कि हाईकोर्ट के फैसले पर पूरी तरह से रोक नही लगाएंगे। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा को एक बड़ी राहत ये दे दी थी कि इंदिरा पीएम बनी रह सकती हैं, मगर बतौर सांसद वे संसद भवन में वोटिंग में हिस्सा नहीं ले सकतीं। दूसरी तरफ विपक्ष के तमाम नेतागण इस बात की मांग करने लगे क सुप्रीम कोर्ट के संपूर्ण फैसले के आने तक इंदिरा को नैतिक तौर पर इस्तीफा दे देना चाहिए।
इंदिरा गांधी के लिए आगे कुआं, पीछे खाई वाली स्थिति पैदा हो गई थी। यानी एक तरफ तो इंदिरा कानूनी लड़ाई लड़ रहीं थी, दूसरी तरफ पूरा विपक्ष उन्हें घेरे खड़ा था। इंदिरा गांधी के भ्रष्ट आचरण के खिलाफ गुजरात और बिहार में छात्रों का आंदोलन शुरू हो गया। इस आंदोलन के बाद से पूरा विपक्ष, सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो गया। देश के लोकनायक के नाम से प्रसिद्ध जयप्रकाश नारायण पूरे विपक्ष की अगुवाई कर रहे थे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ठीक एक दिन बाद यानी 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने एक बड़ी रैली का आयोजन किया।
जयप्रकाश नारायण ऊर्फ जेपी ने इंदिरा के खिलाफ खोला था मोर्चा
जेपी की अगुवाई में हुए इस रैली में कई बड़े नेता मसलन, अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, आचार्य जेबी कृपलानी, मोरारजी देसाई, चंद्रशेखर आदि मौजूद थे। रैली की शुरूआत जयप्रकाश नारायण के भाषण से हुई। उन्होंने रामधारी सिंह दिनकर की कविता की एक पंक्ति ‘ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ से अपने भाषण की शुरूआत की। जेपी ने जनता से अपील की कि इंदिरा के सरकार को उखाड़ फेंको। विपक्ष के तेज तर्रार तेवर को देख इंदिरा के होश उड़ गए।
विपक्ष के बढ़ते तेवर से इंदिरा ने 25 जून 1975 की आधी रात से आपातकाल लगा दिया। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से इमरजेंसी के आदेश पर दस्तखत करा लिए गए। इमरजेंसी के लगते ही देश के तमाम बड़े विपक्षी नेताओं को पकड़कर जेल में डाल दिया गया। 26 जून की अलसुबह कैबिनेट की आपात बैठक बुलाई गई। कैबिनेट बैठक के बाद इंदिरा ने ऑल इंडिया रेडियो के दफ्तर जाकर देश के नाम एक संदेश पढ़ा। इंदिरा ने देश को संबोधित करते हुए कहा, ‘भाईयों और बहनों राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है, इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।’
आपातकाल के लिए इंदिरा ने गिनाएं थे कई कारण
इसके बाद उन्होंने आपातकाल लगाने के पीछे के कारणों को गिनाया। इंदिरा ने आंतरिक अशांति को आपातकाल का वजह बताया। इंदिरा ने देश के लोगों को कहा कि उनकी सरकार ने जनता के हित के लिए कुछ प्रगतिशील योजनाओं की शुरूआत की थी, मगर विपक्ष ने इसके खिलाफ गहरी साजिश रची। यही कारण है कि उन्हें देश में आपातकाल की घोषणा करनी पड़ रही है।
आपातकाल में प्रेस की पूरी आजादी छीन ली गई, कई वरिष्ठ पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया। उस समय कोई भी खबर छपने से पहले प्रधानमंत्री कार्यालय जाती थी, उसके बाद अखबार के कार्यालय। यानी ये कहना गलत नहीं होगा कि पूरे देश को इंदिरा अपने उंगलियों पर नचा रही थीं। इतिहासकार बताते हें कि 21 महीने के आपातकाल में 11 लाख लोगों को जेल में बंद कर दिया गया था। 21 महीने बाद 21 मार्च 1977 को आपातकाल खत्म कर दी गई। आपातकाल खत्म होने की घोषणा के साथ ही देश में एक उल्लास और आजादी का माहौल छा गया।
इंदिरा गांधी ने किया था अनुच्छेद 352 का दुरूपयोग
कांग्रेस के लोग हमेशा ये कहते रहे कि आपाकाल संवैधानिक था, मगर सच्चाई ये थी कि इंदिरा ने संविधान के अनुच्छेद 352 का दुरूपयोग किया था। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 352 में देश में आपातकाल लगाने के 2 तर्क दिए गए हैं। पहला तर्क ये है कि अगर कोई बाहरी आक्रमण हो या युद्ध जैसे हालात पैदा हो जाएं। दूसरा तर्क ये कि यदि देश की शांति भंग हो जाए। बता दें कि जब 1975 में आपातकाल लगाया गया, तब इंदिरा गांधी ने देश में शांति भंग होने का तर्क दिया था।
संविधान में 3 तरह के आपातकाल लगाए हैं। पहला है, राष्ट्रीय आपातकाल। दूसरा है, राष्ट्रपति शासन और तीसरा, आर्थिक आपातकाल है। ये तीनों आपातकाल राष्ट्रपति के मंजूरी पर ही लगाए जा सकते हैं। राष्ट्रपति भी ये आदेश अपने मन से नहीं बल्कि सांसदों द्वारा लिखित प्रस्ताव पर भी लागू कर सकते हैं। आपातकाल लगाने के बाद हर 6 महीने में इसे संसद के दोनों सदनों में रखा जाता है, अगर संसद में ये पास होता है तो आपातकाल को अगले 6 महीनों तक बढ़ाया जाता है। यानी संसद से कुल 4 बार आपातकाल को बढ़ाए जाने पर मंजूरी मिली थी।
आखिर कैसे हटता है आपातकाल?
अब सवाल उठता है कि आखिर आपातकाल हटता कैसे है? बता दें कि राष्ट्रपति द्वारा ही लिखित रूप में आपातकाल हटाने की घोषणा की जाती है। हटाने में संसद की मंजूरी नहीं लेनी पड़ती। आपको बता दें कि 22 जुलाई 1975 को 38वां संसोधन किया गया था, जिसमें आपातकाल की न्यायिक समीक्षा का अधिकार न्यायालय से छीन लिया गया था। इसके बाद 39वां संसोधन किया गया, जिसमें पीएम पद पर मौजूद व्यक्ति के निर्वाचन पर कोर्ट समीक्षा नहीं कर सकता।
1977 में मोरारजी देसाई ने संविधान संशोदधन कर कोर्ट को वे सभी अधिकार वापस दिए। इसके बाद आपातकाल लगाने के प्रावधान में भी संशोधन किया गया, इसमें आंतरिक अशांति के साथ सशस्त्र विद्रोह शब्द भी जोड़ दिया गया। ताकि दोबारा कोई प्रधानमंत्री आपातकाल का दुरूपयोग नहीं कर सके।