अफसोस! झारखंड के इस गांव में बच्चे मिड-डे मील की बजाय चूहे और खरगोश खाने को मजबूर
देश में शिक्षा व्यवस्था की जो हालत है वह किसी से छुपी नहीं है. देश में बच्चों की एक बड़ी आबादी है, जो गरीबी और अन्य मजबूरियों के कारण स्कूल नहीं जा पाती. हालांकि, केंद्र सरकार प्राथमिक शिक्षा से देश के बच्चों को जोड़ने के लिए मिड-डे मील की योजना चला रही है. मगर अफसोस ये योजना जमीन पर कम और कागजों पर ज्यादा दिखती है. 21वीं सदी में हम मंगल से लेकर चंद्रमा तक परचम लहरा चुके हैं. लेकिन हमारे देश में ऐसे कई इलाके हैं, जहां बच्चों को दो वक्त की रोटी तक नसीब नहीं होती. ऐसे में अच्छी शिक्षा की बात करना बेईमानी होगी.
जी हां! झारखंड के राजगढ़ की पहाड़ियों पर एक इलाका ऐसा भी है जहां के बच्चों के नसीब में मिड डे मील नहीं है. यह हमारे देश के विकास पर एक तमाचे की तरह ही है कि यहां के बच्चे आज भी मिड डे मिल के बजाय चूहे, खरगोश और पक्षी खाने को मजबूर हैं. ऐसा हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि इस बात का खुलासा एनटीडीवी की एक रिपोर्ट में हुआ है. चैनल की रिपोर्ट में ऐसी कई बातें सामने आई जो चौंकाने के लिए काफी हैं.
स्कूल है, बच्चे हैं, मगर मास्टर साहब नहीं :
रिपोर्ट के मुताबिक, इस आदिवासी इलाके के स्कूलों की हालत बहुत खराब है. यहां कोई भी शिक्षक आना नहीं चाहता. अक्सर यहां कक्षाओं में ताले लगे होते हैं. शिक्षक साल में एक-दो बार ही स्कूल आते हैं. अब समस्या ये है कि जब स्कूल में टीचर ही नहीं हैं तो मिड-डे मील बनने से रहा. यही वजह है कि मिड-डे मील बच्चों तक नहीं पहुंच रहा है. जिसके कारण गरीब बच्चे खरगोश, चूहे और पक्षी खाकर अपनी भूख शांत कर रहे हैं.
चूहे, खरगोश और पक्षी खाने को मजबूर :
इस इलाके के बच्चों को मजबूरी में अपना पेट पालने के लिए चूहों और खरगोश का सहारा लेना पड़ रहा है. ग्रामीणों के मुताबिक, कई बच्चे भोजन के लिए चूहे व खरगोश को पकड़कर लाते हैं, इन्हें खाने के कारण कई बार वे संक्रमण के शिकार हो जाते हैं.
गौरतलब है कि हाल ही में केंद्र सरकार ने मिड डे मील के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य करने का फैसला लिया है. हालांकि, सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी बच्चे को आधार कार्ड के अभाव में खाने से वंचित नहीं रखा जाएगा. मगर फिर भी सरकार को अभी आधार कार्ड से पहले मिड-डे मील की बुनियादी जरूरतों को समझने की आवश्यकता है.
बहरहाल, झारखंड में कुपोषण की समस्या दशकों से बनी हुई है. आदिवासी इलाकों की हालत तो और भी खराब है. इतना ही नहीं, देश में बच्चों को स्कूलों की तरफ ज्यादा से ज्यादा आकर्षित करने के लिए ही मिड-डे मील योजना की शुरुआत की गई थी, मगर इतने सालों बाद भी अपेक्षित बदलाव देखने को नहीं मिल पा रहा.