एक किन्नर ने बतायी आप बीती, लॉकडाउन के चलते इस तरह से बीत रही है किन्नर समुदाय की ज़िन्दगी
ट्रेन में मांगकर और शादी में बधाई से चलता था खर्चा लेकिन अब खाने की लाइन में लगो तो घूरते हैं लोग
देश में कोरोना की बिगड़ती स्थिति को देखकर सरकार का लॉकडाउन का फैसला बिल्कुल जायज था, लेकिन एक ऐसा समुदाय भी है जिसे इस लॉकडाउन के चलते खाने के लाले पड़ गए हैं। समाज से उपेक्षित ट्रांसजेंडर समुदाय इस वक्त भुखमरी के हालात से गुजर रहा है। किराए के घरों में रहने वाले ये लोग रोजमर्रा के खर्चों तक के मोहताज हो रहे हैं। इन्हें सरकार की किसी योजना का भी लाभ नहीं मिल रहा क्योंकि इनके पास राशन और जरुरी सामान लेने के लिए कागजात भी नहीं हैं। लॉकडाउन के चलते इनका सारा काम बंद हैं और किराए और खाने की चिंता ने इन्हें तनाव में डाल दिया है।
लॉकडाउन ने छीन ली रोजी-रोटी
ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली रेशमा प्रसाद इनकी समस्याएं बताती हैं। रेशमा कहती हैं- ये लोग रोजाना नाच-गाकर कमाते खाते थे और पेट पालते थे। जबसे लॉकडाउन चल रहा है इनका सारा काम बंद हो गया है। इनके लिए रोज का खर्चा निकालना बंद हो गया है। सरकार की तरफ से भी इन्हें कोई मदद नहीं मिल रही क्योंकि इन लोगों में से ज्यादातर के पास ना तो राशनकार्ड है और ना ही आधार और बैंक खाता। इनकी आमदनी का सारा जरिया इस वक्त बंद है।
लॉकडाउन से किसी भी व्यक्ति को परेशानी ना हो इसके लिए भी सरकार लगातार काम कर रही है, लेकिन इन ट्रांसजेंडर समुदाय को वो सुविधाएं भी मुहैया नहीं हो पा रही। रेशमा कहती हैं कि कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं हमारी मदद कर रही हैं, लेकिन वो काफी नहीं है। सरकार कह रही है कि बेघर लोगों के लिए 100 करोड़ का इंतजाम किया गया है, लेकिन हमें उसका लाभ नहीं मिला है।
बता दें की ट्रांसजेंडरों के अधिकार के लिए आवाज उठाने वाली रेशमा दोस्तानासफर नाम की संस्था की सचीव है। इस संस्था से 1500 ट्रांसजेंडर जुड़े हैं जबकि पूरे बिहार में 40 हजार ट्रांसजेंडर हैं। कोरोना संक्रमण के बढ़ते खतरे को देख सरकार ने पूरे देश में लॉकडाउन कर दिया। ट्रेन और सड़क खाली होने के चलते उन पर निर्भर ये ट्रांसजेंडर समुदाय की रोजी-रोटी की समस्या भी बढ़ गई है।
सरकार से भी नहीं मिल रहा कोई लाभ
ट्रांसजेंडर देश की एक बड़ी आबादी है जो रोज ट्रेन और घरों में नाच गाकर अपना पेट पालती है। समाज में इन्हें लोग इज्जत की नजर से भी नहीं देखते। ना ही कोई इन्हें पास बैठाता है नहीं ही अपने बराबर खड़े होने की इजाजत देता है क्योंकि ये समाज की सबसे उपेक्षित आबादी है।
झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में रहने वाली ट्रांसजेंडर फ्रांसेस चुंडी ने अपना दर्द बयां किया है। फ्रांसेस कहती हैं हमारे जितने भी साथी हैं सब अपने घर के अंदर हैं। जिनके पास थोड़ा-बहुत पैसा था उन्होंने तो एक दूसरे की मदद की, लेकिन अब वो पैसे भी खत्म हो रहे है। हमें सरकारी राशन भी नहीं मिला क्योंकि हम लोगों के पास राशन कार्ड नहीं है।
सरकार की तरफ से सामुदायिक किचन भी चल रहे हैं, लेकिन वो लोग वहां जाकर भी खाना नहीं खा सकते। वजह पूछने पर उन्होंने बताया कि जितनी देर लाइन में खड़े होकर हम खाना लेंगे उतनी देर आस पास के लोग हमे घूरते रहेंगे। हमें बहुत अजीब महसूस होता है। हम बिना खाए रह लेंगे , लेकिन ये अपमान हमसे बर्दाश्त नहीं होगा। सिर्फ पेट भरना ही इनके लिए बड़ी समस्या नहीं है। समाज के अलावा बहुत से ट्रांसजेंडर अपने परिवार से उपेक्षित हैं और बहुत से लोगों को किराए के मकान में रहना पड़ता है। ऐसे में मकान का किराया ना भर पाना भी चिंता का कारण है।
ट्रेन में मांगकर और शादी में बधाई से चलता है खर्चा
ट्रांसजेंडर समुदाय का आरोप है कि सरकार ने हमें पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है। हमारे लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया गया जिससे हमारी तकलीफें कम हों। रेशमा ने बताया कि मैंने 26 मार्च को एक वीडियो में अपने समुदाय की ये परेशानियां बताई थीं। इसके बाद 27 मार्च को केंद्र सरकार ने ट्रांसजेंडर के खाते में 1500 रुपए देने की घोषणा भी की थी। अभी तक पूरे देश में केवल 4 हजार लोगों के खाते में ही ये पैसे आए हैं। ये काफी नहीं है। रेशमा ने ये भी बताया कि बहुत से लोगों को ये पैसे इसलिए भी नहीं मिले क्योंकि ज्यादातर के पास बैंक अकाउंट और आधार कार्ड भी नहीं है।
ट्रांसजेंडर समाज की वो आबादी है जिनकी कहीं गिनती ही नहीं होती। समाज इन्हें अच्छी नजर से नहीं देखता। परिवार इनसे पहले ही पीछा छुड़ा लेता है। ऐसे में इन्हें अपना पालन पोषण खुद ही करना होता है। ये लोग या तो ट्रेन में पैसे मांगते दिखेंगे या फिर किसी शादी में या बच्चा होने पर गाते-बजाते दिखते हैं। इन्हीं सारे कामों से इन्हें पैसे मिलते हैं।
झारखंड के जमशेदपुर की बेबो कहती हैं कि कोरोना महामारी से लड़ने के लिए सभी लोगों को सुविधाएं दी गईं, लेकिन हमारे लिए कुछ भी नहीं हुआ। हमारी मुश्किलें तब तक कम नहीं होंगी जब तक हमें समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिल जाता। सरकार की किसी भी योजना में हमारे बारे में क्यों नहीं सोचा जाता है। झारखंड में ऐसी ही एक संस्था के सचिव अमरजीत सिंह कहते हैं- ये लोग जिन घरों में रहते हैं वहां उन्हें दोगुना किराया देना होता है क्योंकि इन्हें आसानी से घर नहीं मिलते। समाज के इस समुदाय को पूछने वाला कोई नहीं है। इनमें से ज्यादातर लोगों के पास बैंक अकाउंट नहीं हैं, सरकार से इन्हें मदद मिलेगी भी तो कैसे?