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आंखों की रौशनी धीरे-धीरे कम होने के हो सकते हैं ये भी कारण, इन बातों को जानना है बेहद जरूरी

बदलते दौर की भागादौड़ी वाली जिंदगी में वर्क लोड इतना बढ़ गया है कि ना चाहते हुए भी आपको कंप्यूटर और मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल हर समय करना पड़ता है. छोटे-बड़े हर काम के लिए आप मोबाइल पर निर्भर रहते हैं. परिवार से ज़्यादा वक़्त लोग अपने मोबाइल फ़ोन और कंप्यूटर को देते हैं, जिसका नतीजा होती है कमज़ोर आंखें. अब तो छोटे-छोटे बच्चे भी बड़े-बड़े चश्मे लगाये दिखते हैं. आंखों की समस्या बड़ी उम्र से लेकर छोटी उम्र तक सबको है. लेकिन नेत्रहीनता के कुछ अन्य कारण जैसे काला मोतिया या ग्लूकोमा भी हैं, जिससे आंखों में कालापानी की समस्या से भी जाना जाता है. आंखों में दबाव बढ़ने से ऑप्टिक नस पर दबाव पड़ता है और यह सूखने लगती है जिससे कि धीरे-धीरे आंखों की रौशनी कम होने लगती है और दिखना बंद हो जाता है. इसे विज्ञान की भाषा में ‘ऑप्टिक एट्रॉफी’ के नाम से भी जाना जाता है. इसके मुख्यतः तीन प्रकार होते हैं.

प्राइमरी की परेशानी

एक्यूट ग्लूकोमा

एक्यूट ग्लूकोमा होने पर सिर में अधिक दर्द, लालिमा, उल्टी, धुंधलापन और दिखाई न देने जैसी समस्या होती हैं.

क्रोनिक सिंपल ग्लूकोमा

इसमें अधिकतर मरीजों को पता ही नहीं चलता कि वह इस समस्या से पीड़ित हैं. इसमें मरीज को कोई दर्द या किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं होती. कुछ मामले में बार-बार चश्मे का नंबर बदलना भी इसका लक्षण माना जाता है.

कॉन्जिनाइटल  ग्लूकोमा

ये रोग का तीसरा प्रकार है जो कि अधिकतर बच्चों को अपना शिकार बनाता है. यह समस्या 10 हजार बच्चों में से किसी एक में पाई जाती है. बच्चों में इसकी वजह आनुवांशिक होती है जिस वजह से उनकी आंखों से पानी, लालिमा, आंखों का आका बड़ा होना और कॉर्निया का धुंधला होना जैसी समस्या होती है.

सेकेंडरी में समस्या

किसी प्रकार की चोट लगने और मोतियाबिंद पककर फूटने से भी मरीज सेकेंडरी ग्लूकोमा से प्रभावित हो सकता है.

मुख्य लक्षण

यह रोग व्यक्ति की दोनों आंखों को प्रभावित कर सकता है. सामान्य रूप से मरीज में दिखने का घेरा कम होने जैसी समस्या हो सकती है. उसके बाद धीरे-धीरे उसकी दृष्टि का विस्तार कम होने लगता है और फिर मरीज को एक ट्यूब में देखने जैसा प्रतीत होता है. अंत में उसकी आंखों की रौशनी बिलकुल चली जाती है.

इन्हें रहता है ज्यादा खतरा

माता-पिता को यदि यह समस्या है तो उनके बच्चों को भी आनुवांशिक रूप से यह रोग होने की संभावना रहती है. इसके अलावा डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, मायोपिया (दूर का साफ़ न देख पाना), हाइपरमेट्रोपिया और 40 से अधिक उम्र के लोगों को ग्लूकोमा का खतरा बना रहता है. इसकी पहचान इंट्रा ऑक्यूलर प्रेशर से की जा सकती है.

जांच व उपचार

प्रमुख जांचें

ग्लूकोमा की पहचान के लिए इंट्रा ऑक्यूलर प्रेशर, आंख के परदे की जांच, पेरीमेट्री व अन्य जांचें की जाती हैं.

इलाज

इसका इलाज इस बात पर निर्भर होता है कि आप किस स्थिति और स्टेज में हैं. कॉन्जिनाइटल ग्लूकोमा का इलाज केवल सर्जरी से ही संभव है. इसके अलावा बड़े व्यक्तियों में एक्यूट ग्लुकोमा के दौरान नसों में होने वाली रुकावट को दूर करने के लिए टेब्रीक्यूलोप्लास्टी, लेजर सर्जरी या टेब्रीकुलेक्टॉमी ऑपरेशन किया जाता है. क्रोनिक ग्लूकोमा का इलाज टेब्रीक्यूलोप्लास्टी ऑपरेशन से किया जाता है.

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