अध्यात्म

सिर्फ चीरहरण के वक्त ही नहीं एक बार और श्रीकृष्ण ने बचाई थी द्रौपदी की लाज, जानें ये घटना

श्रीकृष्ण सिर्फ एक प्रेमी, पति और सृष्टि के पालनकर्ता ही नही थे बल्कि वो बहुत अच्छे मित्र थे। सुदामा औऱ श्रीकृष्ण की दोस्ती के बारे में हम सभी जानते हैं, लेकिन श्रीकृष्ण की एक सहेली ऐसी थी जिससे श्रीकृष्ण बेहद ही स्नेह रखते थे। महाराज द्रुपद की पुत्री और पांडवों की पत्नी द्रौपदी श्रीकृष्ण की बेहद प्रिय सहेली थीं। द्रौपदी के हर सुख दुख में श्रीकृष्ण उनके साथ रहते थे। जब सृष्टि पर सबसे बड़ा अधर्म होने वाला था और दुशाषन द्रौपदी का वस्त्र हरण कर रहा था तो उस वक्त द्रौपदी के लाज की रक्षा श्रीकृष्ण ने ही की थी। हालांकि एक और मौका ऐसा आया था जब श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की लाज रख ली थी, आपको बताते हैं कौन सी थी वो घटना।

जब अक्षयपात्र में खत्म हो गया खाना

ये बात उस समय की है जब पांडव द्रौपदी के साथ वनवास में समय बीता रहे थे। उस वक्त सूर्यदेव ने युद्धिष्ठिर को एक चमात्कारिक अक्षय पात्र दिया था, जिससे चाहे जितना भोजन कर लो वो कभी खत्म नहीं होगा। बस जिस पल द्रौपदी भोजन कर लेंगी उस वक्त खाना खत्म हो जाएगा और अगले दिन फिर से खाने की प्रकिया पात्र में शुरु होगी। ये ही कारण था की पांडव पेट भर भोजन करते और अंत में द्रौपदी भोजन करने के बाद पात्र रख देतीं और अगले दिन फिर भोजन मिलता।

एक दिन संध्या काल के समय युद्धिष्ठिर ने दुर्वासा ऋषि और उनकी शिष्यमंडली से मुलाकात की। इसके साथ ही उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया। दुर्वासा ऋषि ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया, साथ ही कहा कि वो स्नान आदि से निवृत होकर उनके द्वार अपने शिष्यों के साथ भोजन करने जरुर आएंगे और गंगातट पर चले गए। युद्धिष्ठिर ने तो उन्हें भोजन पर बुला लिया, लेकिन इतने सारे लोगो के खाने का इंतजाम वो कैसे करते क्योंकि उस पल तक द्रौपदी ने खाना खा लिया था।

द्रौपदी को चिंता हो गईं। उनके घर मेहमान आए और बिना खाना खाएं चले जाएं ऐसा अनर्थ नहीं होना चाहिए। द्रौपदी चिंता में पड़ी रही तभी उन्हें अपने सखा श्रीकृष्ण का ख्याल आया। उन्होंने अपने मित्र को याद किया और कहा कि जिस तरह आपने मुझे दुशासन के अत्याचार से बचाया था वैसे ही आज भी मेरी लाज रख लीजिए।

ऐसे की श्रीकृष्ण ने अपने सखी की मदद

श्रीकृष्ण को जैसे ही पता चला की उनकी सखी को उनकी जरुर है वो फौरन वहां पहुंचे। द्रौपदी उन्हं देखते ही चिंता मुक्त हो गईं की अब तो सब कुछ सही हो जाएगा। वो अपनी बात कहती इससे पहले ही श्रीकृष्ण ने कहा- इतनी दूर से आया हूं, भोजन तो दो पहले, बड़ी भूख लगी है। द्रौपदी को लज्जा आ गई जिस कारण से बचने के लिए उन्होंने श्रीकृष्ण को यहां बुलाया था उसी संकट मे फिर फंस गईं।

उन्होंने कहा- केशव मैं अभी खाकर उठी हूं, पात्र मे खाना नहीं बचा है। श्रीकृष्ण ने कहा कि एक बार अपना पात्र तो दिखाओ। द्रौपदी बर्तन ले आई और श्रीकृष्ण ने उस बर्तन को अपने हाथ में लिया। उन्होंने देखा कि बर्तन में साग का एक पत्ता औऱ चावल का एक दाना रह गया है। उन्होंने उसे मुंह में डाला और कहा कि इस एक दाने और पत्ते से समपूर्ण जगत के आत्मा यज्ञभोक्ता मुनी तृप्त हो जाएं।

भर गया ऋषि दुर्वासा का पेट

इसके बाद उन्होंन सहदेव से कहा कि तुम ऋषि मुनि को बुला लाओ। सहदेव ने देखा की गंगातट पर कोई नहीं है औऱ दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ जा चुके हैं। दरअसल जिस वक्त श्रीकृष्ण नें अपने मुख में चावल का दाना औऱ साग का पत्ता डाला था उसी वक्त सभी का पेट भर गया था। जब दुर्वासा ऋषि स्नान करके बाहर आए तो उन्होंने कहा कि मेरा पेट तो भरा हुआ महसूस हो रहा है औऱ शिष्यों ने कहा कि उन्हें भी लग रहा है कि पेट भरा हुआ है।

ऋषि दुर्वासा ने कहा  कि इसेस पहले पांडव हमें लेने आ जाओं हमें चलना चाहिए क्योंकि खाने की इच्छा खत्म हो चुकी है और पांडव हमें भरपूर भोजन कराए बिना नहीं जाने देंगे। ऐसे में यहां से चले जाना ही बेहतर होगा और इस तरह से श्रीकृष्ण ने एक बार फिर अपनी सहेली के लाज रख ली और संकट में उसका साथ दिया।

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