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नेहरू की नीतियों और जिद्द के चलते भारत नहीं बन पाया सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक बार फिर चीन ने जैश ए मोहम्मद को इंटरनेशनल आतंकवादी घोषित होने से बचा लिया. चीन के प्रति दीवानगी रखने वाले जवाहरलाल नेहरू ने अगर सरदार पटेल की बात मानी होती तो आज भारत सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में शामिल होता. आज संयुक्त राष्ट्र परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए भारत सरकार खूब मेहनत कर रही है और सुरक्षा परिषद के 5 स्थाई सदस्यों में एक चीन भी है जो साल 1971 से सक्रिय है. चीन कभी पाकिस्तानी आतंकी मसूद अजहर के पक्ष में अपने वीटो का प्रयोग करता है तो कभी उसी विशेषाधिकार के बल पर भारत को एनएसजी की सदस्यता मिलने कोई ना कोई बहाना करता है. मगर सच तो ये है कि नेहरू जी की नीतियों के चलते भारत नहीं बन पाया सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य, इसके बारे में आपको डिटेल में जानना चाहिए जब सरदार पटेल ने बहुत कहा लेकिन नेहरू नहीं माने थे.

भारत नहीं बन पाया सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य

असल में साल 1956 में अमेरिकी राष्ट्रपति जे. एफ. कैनेडी ने भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता भेंट करनी चाही थी क्योंकि एशिया में वह कम्यूनिस्ट चीन के मुकाबले भारत को मजबूत बनाना चाहते थे. मगर भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी वैश्विक गुटनिरपेक्षता के कारण इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और चीन के प्रति दीवानकी उनकी इतनी थी कि उन्होंने भारत के स्थान पर चीन को सुरक्षा परिषद में प्रवेश करने की मांग कर दी थी. सनद है कि सरदार पटेल ने की साल पहले नेहरू को चीन पर बिल्कुल भरोसा ना करने की सलाह दी थी लेकिन नेहरू नहीं माने थे. जब सरदार पटेल की मृत्यू होने वाली थी उसके एक महीने पहले 7 नवंबर, 1950 को उन्होंने नेहरू को चीन के प्रति सचेत करने के लिए एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने लिखा, ‘पिछले कुछ महीनों में रूसी रवैये के अलावा दुनिया में हम अकेले ही हैं, जिसने चीन के संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश का समर्थन किया है और फामोर्सा (ताइवान) के मुद्दे पर अमेरिकी अभिवचन से उसकी (चीन की) रक्षा की है. अमेरिका-ब्रिटेन के साथ और संयुक्त राष्ट्र में हमने बातचीत और पत्राकार दोनों में चीन के अधिकारों और भावनाओं की रक्षा की है. इसके बाद भी चीन द्वारा हम पर शक करने से यही बात साफ होती है चीन हमें शत्रु मानता है. मुझे नहीं लगता कि हम चीन के प्रति इससे ज्यादा उदारता दिखा सकते हैं.’

कांग्रेसी नेता शशि थरुर ने अपनी एक किताब ‘नेहरू-द इन्वेंशन ऑफ इंडिया’ में लिखा है कि संबंधित दस्तावेजों को देखने के वाले अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि की और नेहरू ने चीन को यह स्थान दिया था. 11 मार्च, 2015 को लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अंतराष्ट्रीय इतिहास विभाग के एंटन हर्डर ने ‘नॉट एट द कॉस्ट ऑफ चाइना’ में लिखा कि नेहरू और उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित (जो अमेरिका में भारत की राजदूत थी) के बीच हुए पत्राचार को प्रकाशित किया है उसमें नेहरू ने साफतौर पर लिखा है कि भारत सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का इच्छुक नहीं और यह स्थान चीन को मिलना चाहिए.

पटेलजी ने बहुत बार नेहरू को रोकने का प्रयास किया

जब सरदार ने एक पत्र लिखा तो उस समय तिब्बत पर चीन का आक्रमण जारी था और चीन तिब्बत के बारे में कई बयानबाजी चल रही थी. पटेल ने तिब्बत की सुरक्षा को भारत की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण मानते थे. उन्होंने लिखा, ‘मैंने चीन की सरकार और भारत के राजदूत और प्रधानमंत्री के बीच पत्राचार को ध्यान से पढ़ा है, लेकिन संतोष करने वाला निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहा हूं. चीन की सरकार ने शांतिपूर्ण इरादों की घोषणा करके हमें धोखा देने की कोशिश की. वे हमारे राजदूत के मन में यह बात बिठाने में सफल हो गए कि चीन तिब्बत मामले का शांतिपूर्ण हल चाहता है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस पत्राचार के बीच के समय में चीनी तिब्बत पर भीषण आक्रमण की तैयारी कर रहे हैं. त्रासदी ये है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया लेकिन हम उन्हें चीन की कूटनीति और दुष्ट इरादों से नहीं बचा पाए.’

इन बातों पर विचार करें और सरदार के उन पत्रों को ध्यान से पढ़ें तो एक ही बात समझ आती है कि अगर वे देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो क्या भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ठुकरा देते ? क्या तिब्बत के लिए कुछ भी नहीं करते ? क्या साल 1962 में चीनियों के सामने हमारी सेना बिना तैयारी के खड़ी होती ? अगर हमने अपने हितों की शुरु से ही रक्षा की होती, अगर भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होता, तो चीन और पाकिस्तान हमसे कभी उलझ नहीं पाते. सरदार कश्मीर के मामले को अलग तरीके संभालते और देश की राजनीति में वंशवाद को पनपने नहीं देते. आप खुद सोचिए क्या होता अगर आज सरदार वल्लभ भाई पटेल जिंदा होते तो हमारे देश की स्थिति को कैसे संभालते ?

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