गालिब विशेषः दिले नादां तुझे हुआ क्या….वह शायर जिसने दो लाइनों से अदालत का मुकदमा जीत लिया
दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए जब दिल ही दर्द हो तो क्या कीजिए…मिर्जा गालिब के लिएखे ऐसे ही कुछ शेर और शायरी हैं जो दिल का हाल बयां कर देते हैं। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 में आगरा के एक सैन्य परिवार में हुआ था। बेहद ही कम उम्र में उनरे ऊपर से उनके पिता का साया उठ गया। उनके चाचा ने उन्हें कुछ दिन पाला, लेकिन उनका साथ भी ज्यादा दिन का नहीं रहा। 13 साल की उम्र में उमराव बेगम से उनका निकाह हो गया। मिर्जा गालिब मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने अपने दरबार में कवि का पायदान दिया था।
एक बार की बात है कि गालिब ने उधार की शराब ली औऱ फिर कर्ज नहीं चुका सके। उन पर मुकदमा चला दिया गया। अदालत में जब सुनवाई हो रही थी तो उन्होंने एक शेर पढ़ दिया। उस शेर को सुनकर जज ने उनका कर्ज माफ कर दिया। वह शेर था
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
गालिब फारसी के जानकर आदमी थी कह सकते हैं कि इसमें महारथ हासिल किए हुए थे उन्हें दिल्ली के एक कॉलेज में फारसी पढ़वाने के लिए बुलाया गया। वह पालकी पर सवार होकर पहंचे, लकिन उनके स्वागत के लिए दरवाजे पर उन्हें कोई नहीं दिखा। उन्होंने कहा कि मेरे स्वागत के लिए लोग बाहर नहींआए तो मैं भी अदंर नहीं जाऊंगा। यह नौकरी मैंने इसलिए स्वीकार की थी की अपने खानदान की इज्जत बढ़ जाए इसलिए नहीं कि इसमें कमी आ जाए। उनके अंदर गजब का आत्मसम्मान था। उनंका हालात कैसे भी रहे हों, उन्होंने अपने सम्मान का काभी सौदा नहीं किया।15 फरवरी 1869 में गालिब इस दुनिया को अलविदा कह गएं। उनके बारे में कहने को और कुछ नही है क्योंकि उनकी शायरी (Galib ki Shayari) ही सबकुछ बयां कर देती हैं।
गालिब के शेर
तेरी वफा से क्या हो तलाफी की दहर में
तेरे सिवा भी हम पर बहुत सितम हुए हैं
आता है कौन कौन तेरे गम को बांटने
गालिब तू अपनी मौत की अफवाह उड़ा के देख
मेहरबां हो को बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त
मैं गया वक्त नहीं कि फिर आ भी ना सकूं
कुछ इस तरह मैंने जिंदगी को आसान कर लिया
किसी से माफी मांग ली किसी को माफ कर दिया
उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक
वो समझते है की बीमार का हाल अच्छा है
आह को चाएह इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तिरी जुल्फ के सिर होने तक
गम ए हस् का असद किस से हो जुज मर्ग इलाज
हर रंग में जलती है सहर होने तक
चांदनी रात के खामोश सितारों की कमस
दिल में अब तेरे सिवा कोई भी आबाद नहीं
हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पर दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमा फिर भी कम निकले
कितना खौफ होता है शाम के अँधेरे में
पूंछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते।
बस की दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा हो जाना
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