मिर्ज़ा गालिब की मशहूर शायरी | Galib ki Shayari
galib ki shayari: शेरो-शायरी, ग़ज़ल तथा कविताओं के लिए बेहद ही मशहूर लेखक मिर्जा गालिब एक ऐसी शख्सियत है जिनकी शेरो शायरी ना सिर्फ युवाओं को बल्कि हर उम्र के लोगों को बहुत ही प्रेरित करती हैं। बता दें कि मुगलकाल के आखिरी महान कवि और शायर मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 में आगरा के कला महल में हुआ था। देखा जाए तो ग़ालिब की शायरी (galib ki shayari) में इंसानी जिंदगी का हर एहसास बहुत शिद्दत से जगह पाता है और यही वजह है कि वह उर्दू के सबसे मशहूर शायर कहलाए। हालांकि मिर्जा गालिब का इंतकाल सन 1869 में हो चुका है मगर आज भी उनकी शायरी लोगों की जुबां पर मुहावरों की तरह हैं।
महान शख्सियत मिर्जा गालिब
हालांकि मिर्जा गालिब की प्रथम भाषा उर्दू थी मगर उन्होंने उर्दू के अलावा फारसी में भी कई सारे मशहूर शेर आदि किए हैं। आपको बता दें मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी (galib ki shayari) लोगों के दिलों को छू जाती है और तो और इनकी कविताओं पर भारत और पाकिस्तान में ढेर सारे नाटक भी बन चुके हैं। आज हम आपको मिर्जा गालिब के मशहूर शेर-ओ-शायरी (Mirza Ghalib Shayari) से रूबरू कराने जा रहे हैं जो ना सिर्फ भारत में बल्कि पूरे विश्व भर में मशहूर है।
मिर्ज़ा गालिब की मशहूर शायरी (Galib ki Shayari in Hindi)
मिर्ज़ा गालिब उर्दू के बहुत ही प्रसिद्ध शायर थे। मिर्ज़ा गालिब जी गिनती उर्दू के शहंशाहो में की जाती थे। उनकी लिखी गई शायरी आज भी बहुत प्रसिद्ध है। इनको उर्दू भाषा का महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता को हिंदुस्तान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है। ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है। मिर्ज़ा गालिब ने शायरी को एक नया नाम और मुकाम दिया है।
1) कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
2) इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या
हाथ आएँ तो उन्हें हाथ लगाए न बने
कह सके कौन के यह जलवागरी किस की है
पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने
3) सादगी पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता की फिर खंजर काफ-ऐ-क़ातिल में है
देखना तक़रीर के लज़्ज़त की जो उसने कहा
मैंने यह जाना की गोया यह भी मेरे दिल में है
4) मेहरबां होके बुलाओ मुझे, चाहो जिस वक्त
मैं गया वक्त नहीं हूं, कि फिर आ भी न सकूं
5) हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
6) मोहब्बत मैं नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते है जिस काफिर पे दम निकले
7) गालिबे-खस्ता के बगैर कौन-से काम बंद हैं
रोइए जार-जार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों
8) पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या
9) खुदा के वास्ते पर्दा न रुख्सार से उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो जहाँ भी वही काफिर सनम निकले
10) फिर तेरे कूचे को जाता है ख्याल
दिल-ऐ-ग़म गुस्ताख़ मगर याद आया
कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
11) ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
12) रंज से खूंगर हुआ इंसां तो मिट जाता है .गम
मुश्किलें मुझपे पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं
13) बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
14) तोड़ा कुछ इस अदा से तालुक़ उस ने ग़ालिब
के सारी उम्र अपना क़सूर ढूँढ़ते रहे
15) क़र्ज की पीते थे मैं और समझते थे कि हाँ
रंग लायेगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन
16) हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और
17) तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिला के दिखा
नहीं तो दो घूँट पी और मस्जिद को हिलता देख
18) मैं नादान था जो वफ़ा को तलाश करता रहा ग़ालिब
यह न सोचा के एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी
19) या रब, न वह समझे हैं, न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको, जो न दे मुझको जबां और
20) बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब
जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है
21) क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
22) कैदे-हयात बंदे-.गम, अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी, गम से निजात पाए क्यों
23) उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
24) बंदगी में भी वो आज़ाद-ओ-खुदबी हैं कि हम
उल्टे फिर आयें दरे-काबा अगर वा न हुआ
25) रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
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