बकरीद पर कुर्बानी के होते हैं 6 खास नियम जो हर मुस्लिम को पता होना चाहिए
इस्लाम धर्म में ईद के बाद जो सबसे बड़ा पर्व मनाया जाता है उसे बकरीद या फिर बकरा ईद कहा जाता है, कुछ लोग इस दिन को ईद-उल-जुहा भी कहते हैं. ये त्योहार ईद के 40 दिनों के बाद मनाया जाता है जिसमें बकरे या मेमने की कुर्बानी दी जाती है. इस साल बकरीद 22 अगस्त के दिन मनाई जाएगी और इस दिन मुस्लिम धर्म के लोग अपने खुदा को अपनी पसंद की चीज कुर्बानी के तौर पर देते हैं. इस त्योहार में ईद से थोड़ी कम लेकिन अच्छी-खासी रौनक होती है. इस दिन भी लोग एक-दूसरे को सेवईं, मिठाईयां और पकवान खिलाते हैं. ये दिन कुर्बानी का दिन होता है लोग बकरीद पर कुर्बानी के होते हैं 6 खास नियम और नियमों को हर मुस्लिम बखूबी जानता है.
बकरीद पर कुर्बानी के होते हैं 6 खास नियम
1. बकरीद के मौके पर बकरे की कुर्बानी एक प्रतीक के रूप में दी जाती है, महर ये कुर्बानी देना बहुत जरूरी नहीं है. अगर कोई मुस्लिम व्यक्ति अपनी कमाई का ढाई प्रतिशत दान में देता है तो उसे कुर्बानी देने की जरूरत नहीं होती उसपर खुदा की रहमत हमेशा बरसती है.
2. जिस भी जानवर (बकरा या मेमना) की कुर्बानी दी जाती है वो कोई भी रोग ग्रस्त नहीं होना चाहिए और ना ही उसकी उम्र एक वर्ष से कम होनी चाहिए.
3. कुरान में इस बात का जिक्र साफ-साफ किया गया है कि खुदा के पास जिस भी जानवर की कुर्बानी दी जाती है उसकी हड्डी और खून कुछ भी उन तक नहीं पहुंचता बल्कि कुर्बानी देने वाले का जज्बा खुदा तक पहुंचता है.
4. नमाज से पहले किसी भी जानवर की कुर्बानी नहीं दी जा सकती. कुर्बानी के बाद प्राप्त मांस के तीन हिस्से किये जाते हैं. इसमें एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है, दूसरा गरीबों में दिया जाता है और इसका तीसरा हिस्सा रिश्तेदारों और दोस्तों में में बांट दिया जाता है.
5. कुर्बानी का सबसे खास नियम ये है कि जिस भी व्यक्ति के पास उस समय की 613 ग्राम चांदी के बराबर संपत्ति है तो उसे कुर्बानी का हक है, लेकिन कुर्बानी देने के समय उस व्यक्ति के सिर पर कोई भी कर्ज़ा नहीं होना चाहिए.
6. कुर्बानी के लिए प्रयोग किये गए बकरे की कीमत एक लाख का है या 1 हजार का हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. बस कुर्बानी देने वाले की नीयत साफ होनी चाहिए और उसके मन में किसी के प्रति बैर या द्वेष नहीं होना चाहिए.
क्या होता है बकरीद का महत्व ?
इस्लाम धर्म में सबसे खास पैगंबरों में से पैगंबर हजरत इब्राहीम माने जाते हैं. ऐसा कहा जाता है कि एक बाक अल्लाह ने हजरत जी से उनकी सबसे प्यारी चीज मांग ली थी और उऩ्हे सबसे प्यारा उनका एकलौता बेटा था क्योंकि वो उनके बुढ़ापे में हुआ था. मगर हुकुम अल्लाह का था तो उन्होंने बिना डरे और हिचके अपने बेटे की कुर्बानी का फैसला किया. बेटे की कुर्बानी देने के लिए पैगंबर हजरत घर से निकले ही थे कि उनके पीछे एक शैतान पड़ गया और उसने उऩसे कहा कि किसी के कहने पर तुम्हे अपने बेटे की कुर्बानी नहीं देनी चाहिए, ऐसा सुनकर उनका मन भटका लेकिन कुछ देर वहां सोचने पर उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली. पट्टी इसलिए बांधी कि जब वे अपने बेटे की कुर्बानी दें तो उन्हें दुख ना हो. जैसे ही उन्होंने अपने बेटे की कुर्बानी दी और आंख खोली तो उनका बेटा सही सलामत खड़ा था और उसकी जगह एक बकरे की कुर्बानी हो गई. ऐसी मान्यता है कि अल्लाह ने हजरत इब्राहिम के बेटे की जगह बकरा खड़ा कर दिया था और इसके बाद से लोग अल्लाह के आदेश को मानते हुए बकरे या मेमने की कुर्बानी देने लगे.