‘जौहर’ करने और ‘सती’ होने में क्या अंतर है जान लिजिए क्योंकि ‘पद्यावत’ में ये नहीं बताया गया है
नई दिल्ली – संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती जिसका बवाल मचने के बाद नाम बदलकर पद्यावत कर दिया गया है। फिल्म में रानी पद्मावती के जौहर को जिस भव्य तरीके से दिखाया गया है उसकी सभी तारीफ कर रहे हैं। फिल्म और इतिहास में इस बात का जिक्र है कि राजपूत घराने की आन-बान-शान मानी जाने वाली रानी पद्यावती के साथ 1000 रानियां अलाउद्दीन खिलजी और उसकी सेना से खुद को बचाने के लिए आग में कूदकर अपनी जान दे देती हैं। लेकिन, ये बात बहुत कम लोगों को मालूम है कि ‘जौहर’ करने और ‘सती’ होने में क्या अंतर है? तो आइये आपको बताते हैं कि दोनों में क्या अंतर है।
जौहर
जौहर शब्द फारसी शब्द का अरबी अनुवाद है। अरबी में जौहर का अर्थ रत्न और ज्वैलरी है। जौहर में रानियां विशाल अग्निकुंड में पूर्ण श्रृंगार करके आत्मदाह करती थीं। इसकी शुरुआत तब हुई जब मुगल, तुर्की, यूनानी देश के राजाओं को हराने के बाद राज्य पर कब्जा कर लेते थे और राज्य की स्त्रियों को अपना गुलाम बनाकर उनका शोषण करते थे। जौहर की शुरुआत इसी वजह से हुई। क्योंकि राजपूतों की रानियां खुद को किसी मुगल, तुर्की या यूनानी की गुलामी और शोषण करने से जान देना उचित समझती थी। अपने और अपने पति के स्वाभिमान और अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर की शुरूआत हुई थी।
16वीं शताब्दी में मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा लिखे गए पद्मावत में पद्मावती का जिक्र मिलता है। राजस्थान की पाठ्य पुस्तकों में और कई ऐतिहासिक पुस्तकों में रानी पद्मावती के जौहर की कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। चित्तौड़ के किले में आने वाले पर्यटकों को वह स्थान दिखाए, बताए और समझाए जाते हैं जहां पर सुल्तान खिलजी ने उन्हें देखा था और जहां रानी पद्मावती ने महिलाओं के साथ जौहर किया था। इतिहासकारों के मुताबिक 1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला अपने सम्मान की रक्षा के लिए किया था। चित्तौड़ में आज भी वह जौहर कुंड मौजूद है, जहां रानी ने जौहर किया था। इस पूरी घटना को पद्यावत फिल्म में भी दिखाया गया है।
सती प्रथा
अगर आप ये सोच रहे हैं कि जौहर और सती प्रथा एक ही है, तो आप पूरी तरह से गलत हैं। जौहर और सति प्रथा में मूल अंतर यह है कि जौहर जहां अपने स्वाभिमान और अपने सम्मान की रक्षा के लिए किया जाता है तो वहीं सती प्रथा का अर्थ पति की मृत्यु के बाद उसकी चिता के साथ जलना था। आपको जानकर हैरानी होगी की सनातन धर्म यानि हिंदू धर्म के चारों वेद – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में कहीं भी सती प्रथा का जिक्र नहीं है। सती प्रथा में पति की मृत्यु के बाद पत्नी को अपनी पवित्रता और प्रेम साबित करने के लिए पति के साथ उसकी चिता के साथ ही जिंदा जलना होता था।
सती प्रथा के प्रमाण महाभारत काल में देखने को मिलते हैं। सती प्रथा का अभिलेखीय साक्ष्य गुप्तकाल में 510 ईसवीं के दौरान देखा गया था। इस अभिलेख में महाराज भानुगुप्त के गोपराज द्वारा युद्ध में मारे जाने के बाद उनकी पत्नी के सती होने का जिक्र किया गया है। इसी लेख को प्रमाण मानकर भारत में सती प्रथा जैसी कुरीति की शुरुआत हुई थी। सती प्रथा का कुछ लोगों ने गलत इस्तेमाल भी किया। मृतक की जमीन जायदाद उसकी पत्नी को न मिले इसके लिए उसकी पत्नी को प्रथा के नाम पर जला दिया जाता है। आपको बता दें कि राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठाकर और विधवा पुर्नविवाह पर जोर देककर इस कुरीति से महिलाओं को आजादी दिलाई।