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कहानी उस समय की जब गाँधी जी को दिया गया था दूध में ज़हर, बावर्ची ने सूझ-बुझ से बचायी थी जान

नई दिल्ली: महात्मा गाँधी के बारे में किसी को कुछ भी बताने जरुरत नहीं है। उन्होंने अपनी लाठी से अंग्रेजों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। 30 जनवरी 1948 की शाम को महात्मा गाँधी की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। हर रोज की तरह ही नई दिल्ली स्थित बिड़ला भवन में वह शाम को प्रार्थना के लिए जा रहे थे, तभी नाथूराम गोडसे ने उनके पहले पैर छुए फिर पिस्तौल से 3 गोलियां मारकर उनकी हत्या कर दी थी। गाँधी जी उस समय अपने अनुयायियों से घिरे हुए थे।

इस बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि गाँधी जी को मारने की चाहत गोडसे के अलावा एक और व्यक्ति की थी। वह भी गाँधी जी को मारना चाहता था। आपको बता दें गांधी जी को मारने की यह साजिश एक अंग्रेज ने की थी, लेकिन वह सफल नहीं हो पाया था। उस समय गाँधी जी की जान एक बावर्ची ने बचाया था, लेकिन उस बावर्ची के बारे में कम लोग ही जानते हैं। बात उस समय की है जब 1917 बिहार में नील किसानों की क्रांति अपने चरम सीमा पर थी।

उस समय अंग्रेजों ने भारतियों को परेशान करने की पूरी कोशिश की। आन्दोलन में हिस्सा लेने के लिए गाँधी जी भी अपने समर्थकों के साथ बिहार के मोतिहारी जिले में गए हुए थे। आपको जानकर हैरानी होगी कि दक्षिण अफ्रीका से वापस आने के बाद भारत में यह गाँधी जी का पहला आन्दोलन था। इसी समय उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ पहली बार आन्दोलन की शुरुआत की थी। उस समय मोतिहारी के जिलाधिकारी लार्ड इरविन थे। जैसे ही इरविन को गाँधी के मोतिहारी आने की खबर मिली, उन्होंने गाँधी जी को खाने पर आमंत्रित किया।


गाँधी जी ने इरविन का निमंत्रण स्वीकार करते हुए खाने के लिए उनके घर पहुँच गए। गाँधी जी के जाते ही इरविन ने अपने बावर्ची बटक मियां को दूध में ज़हर मिलकर गाँधी जी को पिला देने के लिए कहा था। इरविन का आदेश था इसलिए उन्होंने ज़हर तो मिला दिया लेकिन बाद में उन्हें समझ में आया कि वह जो करने जा रहे हैं, वह कितना गलत है। इसलिए उन्होंने दूध देने से पहले ही दूध में ज़हर होने की बात गाँधी जी को चुपके से बता दी। बावर्ची का इशारा मिलते ही उन्होंने दूध पीने से इनकार कर दिया और इरविन की साजिश का पर्दाफाश हो गया।

गाँधी जी की इस घटना से देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद परिचित थे। इस घटना के तीन दशक बाद जब देश 1947 म आजाद हुआ तो 1950 में राजेंद्र प्रसाद मोतिहारी आये। उन्होंने आने के बाद बटक मियाँ को सम्मानित किया था। बटक मियाँ बहुत ही गरीब थे। उनकी गरीबी देखते हुए राजेंद्र प्रसाद ने आदेश दिया कि उन्हें 35 बीघा जमीन दी जाये। राष्ट्रपति के आदेश के बाद भी बटक मियाँ को जमीन नहीं मिली और वह जीवन भर गरीबी में ही जीते रहे। अपने हक के लिए लड़ते हुए बटक मियाँ आख़िरकार 1957 में इस दुनिया को छोड़ कर चले गए।

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