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यहां खेती के दौरान पत्नी के साथ नहीं सो सकते किसान,वजह है हैरान करने वाली

देश में कई तरह की मान्यताएं हैं, कुछ धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं , तो कुछ आज भी बदस्तूर जारी हैं। कुछ लोग इसे अंधविश्वास भी कहते हैं, पर जो परंपरा एक बार बन गई दोबारा उसको तोड़ने के लिए किसी ने हिम्मत नहीं दिखाई। ऐसी ही कुछ मान्यताएं गृहस्थ जीवन और सहचर्य को लेकर भी हो गई हैं। कई बार गृहस्थ और ब्रह्मचर्य जिनका कोई वास्तविक जीवन में मेल नहीं है, दोनों एक साथ नहीं हो सकते लेकिन झारखंड के पूर्वी सिंहभूमि जिले के गुड़ाबांदा प्रखंड के सैकड़ों किसान पीढ़ियों से ऐसी दोनों तरह की ज़िंदगी के साथ जीते चले आ रहे हैं।

नक्सल प्रभावित इलाके में जहां रेशम कीट का पालन किया जाता है। यहां शादीशुदा किसान साल में दो बार दो-दो महीने के लिए पत्नियों को त्याग कर ब्रह्मचर्यों जैसी जिंदगी गुजारते हैं। इस दौरान ये मुख्य रूप से अर्जुन और आसन के पेड़ों पर पल रहे रेशम के कीड़ों को चींटियों, साथ ही रेशम के कीटों को खाने वाले दूसरे कीड़ों और पक्षियों से बचाते हैं। मान्यता है कि स्त्री के साथ संपर्क में रहने से रेशम के कीटों को कीड़े खा जाते हैं।

गुड़ाबांदा प्रखंड के अर्जुनबेड़ा गांव के सुरेश महतो बताते हैं,  कि रेशम की खेती के समय हम लोग बीवी के साथ नहीं सोते हैं, न तो पत्नियां हमें छूती हैं और वो हमसे अलग भी रहेंगी यहां तक की हम उनके हाथ का बना हुआ खाना भी नहीं खाते हैं।

इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है,  जब हम लोग पत्नी के साथ सो जाएंगे तो खेती में बीमारी लग जाएगी। जिससे यह नियम बनाया गया है। इतना ही नहीं ब्रह्मचर्य के अलावा भी किसानों के कुछ और नियम भी हैं जिनका पालन करना पड़ता है। हालंकि इसकी शिकायत उन्हें नहीं है। अर्जुनबेड़ा गांव के नित्यानंद महतो की मानें तो ‘कीड़ों की रखवाली करने नहा करके जाते हैं, रखवाली के दौरान शौच के बाद नहाना पड़ता है। कीड़े बीमार पड़ जाएं तो पूजा-पाठ करते हैं और फल यानी कोनून तैयार होने के बाद बकरे की बलि देते है।

अर्जुन बेड़ा में रेशम की खेती के दौरान संयमित जीवन जीने का नियम सैकड़ों सालों से हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। इस इलाके में रेशम की खेती करने वाले लगभग सभी किसान चाहे वो किसी भी समुदाय से हों वो इन ‘नियमों’ का पालन करते हैं। रेशम के कीड़ों के पालन से जुड़े कुछ और नियमों भी हैं। जैसे कीड़ों को पालने के समय किसान अंडा और मांस-मछली नहीं खाते हैं, जंगल में जाकर झोपड़ी बनाकर रहते हैं और अपने हाथों से रसोई करते हैं। मान्याता है कि इससे अच्छी फसल होती है, फल ज्यादा लगते हैं।

लेकिन कुछ महिलाओं ने इस नियम को तोड़ दिया है। धतकीडीह गांव में बने तसर उत्पादन सह प्रशिक्षण केंद्र में कई महिलाएं रेशम के कीड़ों को पालने का व्यवसाय कर रही हैं। उनका परिवार भी खेती करता है। महिलाएं बताती हैं कि पहले पुरुष ही खेती करते थे, महिलाओं को पास नहीं जाने देते थे। अब समय बदल गया है, हम भी इस खेती में हाथ बंटाते हैं। शुरू में कुछ दिन पुरुषों को समझने में लगा लेकिन अब अब पुरुषों को भी लग रहा है कि महिलाएं खेती कर सकती हैं।

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