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दिल्ली में रहने के लिए मिर्जा गालिब को देना पड़ता था टैक्स, जानिए क्यों

आगरा के एक हवेली में पैदा हुए मशहूर शायर मिर्जा असदुल्लाह खां ‘गालिब’ का 26 दिसंबर यानी बुधवार को जहां दुनिया जन्‍मदिन मना रही है, और दिल्ली के कला केंद्रों पर उनके नाम के मुशायरे हो रहे हैं। शायरों के लिए वो गजल ओर शायरी के बादशाह से कम नहीं हैं, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इसी दिल्ली में एक वक्त ऐसा था जब यहां रहने के लिए मिर्जा गालिब को टैक्स देना पड़ता था। टैक्स न देने पर उनको हवालात में बंद होने की नौबत आ जाती थी।

आज से करीब 220 साल पहले 1797 में आगरा में पैदा हुए मिर्जा गालिब का ऐसा भी समय आया, जब उन्‍हें मुसलमान होने का टैक्‍स देना पड़ता था। यह टैक्‍स उस समय अंग्रेज लगाते थे। जब वह पैसे के मोहताज हो गए तो हफ्तों कमरे में बंद पड़े रहते थे। दुनिया आगरा को एक ऐसे शहर के तौर पर जानती है जहां ‘इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है’। कम ही लोग जानते हैं कि ताजनगरी मशहूर शायर मिर्जा गालिब का भी शहर है। आगरा के पीपल मंडी इलाके में पैदा हुए गालिब वक्त के साथ दिल्ली के होकर रह गए। दिल्ली के बल्लीमारां की गलियों से उन्हें कुछ ऐसा इश्क हुआ कि मोहब्बत की नगरी की यादें कहीं पीछे छूट गईं। शहर ने भी उनके यादों को संजोकर रखने की जहमत नहीं उठाई।

आगरा की जिस हवेली में गालिब पैदा हुए थे,  आज वहां पीपल मंडी स्थित इंद्रभान गर्ल्‍स इंटर कॉलेज। मिर्जा गालिब की इस हवेली को कलां महल के नाम से जाना जाता था। पीपल मंडी स्थित गुलाबखाना गली। यह गली गालिब की हवेली के पास है। गालिब इस हवेली में 13 साल तक रहे। इसके बाद वह दिल्ली चले गए, लेकिन दिल्ली में उनके लिए रहना बहुत मुश्किल था।

दिल्ली जाने के बाद मिर्जा गालिब की मुश्किलें बढ़ने लगी थी। गालिब ने बाजार सीताराम की गली कासिम जान हवेली में जिंदगी का लंबा समय गुजारा। एक वक्त में जब‍ गालिब के पास पैसे नहीं होते थे, तो वह हफ्तों कमरे में बंद रहते थे। क्योंकि उन दिनों दिल्ली में रहने के लिए टैक्स लगता था।  उन्‍हें डर होता था कि अगर टैक्‍स नहीं भरा तो दरोगा पकड़कर ले जाएगा। इस बात का जिक्र करते हुए गालिब आगरा में अपने मित्रों को पत्र लिखते थे। (और पढ़ें : Galib ki Shayari)

राजे बताते हैं कि 1857 में गदर असफल होने और बहादुरशाह जफर को अंग्रेजों ने कैद कर लिया और दिल्‍ली से जनता को भगा दिया। दिल्ली में अंग्रेजों के सिवाय कोई नहीं था। जब काम करने वाले और दूसरे लोग दिल्ली में नहीं बचे तो अंग्रेजों ने 15 दिन बाद हिंदुओं को दिल्‍ली लौटने और रहने की इजाजत दी। जबकि मुसलमानों को दो महीने तक दिल्ली में घुसने नहीं दिया गया। जब अनुमति मिली तो इसमें बड़ी शर्त लगा दी गई। शर्त के मुताबिक, मुसलमानों को दिल्ली में रहने के लिए दारोगा से परमिट लेनी थी।

मुसलमानों को दिल्ली में रहने के लिए दो आने का टैक्‍स हर महीने देना पड़ता था। साथ ही थानाक्षेत्र से बाहर जाने पर रोक थी। टैक्स न भरने पर दारोगा आदमी को दिल्‍ली के बाहर कर देता था। वहीं, हिंदुओं को इस परमिट की जरूरत नहीं होती थी। कुछ ऐसा ही मिर्जा गालिब के साथ भी हुआ। वह दिल्‍ली में हर महीने दो आने अंग्रेजों को देते थे। पुस्‍तक ‘गालिब के खत किताब’ में ऐसे पत्रों का जिक्र है, जिसमें गालिब ने इस परेशानी का जिक्र का किया है।

गालिब ने जुलाई 1858 को हकीम गुलाम नजफ खां को पत्र लिखा था। जबकि फरवरी 1859 को दूसरा पत्र मीर मेंहदी हुसैन नजरू शायर को लिखा। जिनमें अंग्रेजों के जुल्म की दास्तान दर्ज थी। दोनों पत्र में गालिब ने कहा है, ‘आजकल घर से बाहर न‍हीं निकलता हूं, क्योंकि दो आने का टिकट नहीं खरीद सका। घर से निकलूंगा तो दरोगा पकड़ ले जाएगा।’  गालिब ने 1857 की क्रांति देखी, मुगल सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर का पतन देखा। अंग्रेजों की हुकूमत देखी, उनका उत्थान और  जनता पर उनके जुल्म गालिब ने अपनी आंखों से देखा।

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